मानव-चेतना में संवेदना, साहस, विश्वास और वृत्ति वे चार मूल शक्तियाँ हैं जो मनुष्य के विचारों, व्यवहार और निर्णय-प्रक्रिया को भीतर से नियंत्रित करती हैं। इनमें संवेदना वह प्रथम स्पंदन है जो मानव को दूसरे के सुख-दुःख से जोड़ती है; साहस वह शक्ति है जो संवेदना को दिशा देकर कठिन परिस्थितियों में भी व्यक्ति को आगे बढ़ने का सामर्थ्य देती है और वृत्ति वह स्थायी स्वभाव है जो व्यक्ति के आचरण में स्थिरता लाता है। परंतु इन तीनों के मध्य जो तत्व धुरी की भाँति सबको जोड़ता, स्थिर करता और दिशा देता है, वह *”विश्वास”* है। विश्वास के बिना संवेदना क्षणिक, साहस अस्थिर और वृत्ति विकृत हो जाती है; जबकि विश्वास के साथ संवेदना परिपक्व, साहस दृढ़ और वृत्ति संतुलित हो जाती है। वैदिक वाङ्मय में श्रद्धा को परम शक्ति कहा गया है— *“श्रद्धा-बीजं तपो-वृद्धिः, श्रद्धा लोकस्य नः प्रभुः।”* (अथर्ववेद) अर्थात् श्रद्धा ही हर साधना और विकास का मूल बीज है और वही संसार की धारक शक्ति है। इस प्रकार विश्वास केवल भावचतुष्टय का तीसरा आयाम नहीं, बल्कि सम्पूर्ण तंत्र का केन्द्रीय प्रकाश है जो मनुष्य को भीतर से स्थिर, संयत और पूर्ण बनाता है।
*1. अद्वैत दृष्टि में विश्वास का परम स्वरूप*
अद्वैत वेदांत के अनुसार विश्वास किसी बाहरी वस्तु, संबंध या परिस्थिति पर आधारित भरोसा नहीं, बल्कि अपने ही शुद्ध, नित्य, अविनाशी आत्मस्वरूप की पहचान से उत्पन्न होने वाली आंतरिक स्थिरता है। अविश्वास तभी जन्मता है जब मनुष्य स्वयं को शरीर और मन तक सीमित मानकर द्वैत में जीता है, परंतु अद्वैत कहता है कि वास्तविक अस्तित्व ब्रह्म है और जीव उसी ब्रह्म का प्रकाश। जब यह अनुभूति जागती है कि *“मैं वही चेतना हूँ”* तभी विश्वास अपनी पूर्ण, अविचल अवस्था में प्रकट होता है। यही कारण है कि उपनिषद का महावाक्य *“अहं ब्रह्मास्मि”* विश्वास का सर्वोच्च श्लोक माना जाता है, क्योंकि यह बताता है कि विश्वास किसी बाहरी आधार का विषय नहीं, बल्कि स्वयं में स्थित होने का अनुभव है। इस अनुभूति के बाद व्यक्ति का विश्वास वस्तुओं पर नहीं, परिस्थितियों पर नहीं, बल्कि अपने भीतर स्थित उस चैतन्य पर टिक जाता है जो न बदलता है, न घटता है, न कभी नष्ट होता है। अद्वैत में विश्वास का सार यह है कि मनुष्य बाहरी स्थिरता नहीं खोजता, बल्कि अपने ही आत्मस्वरूप को स्थिर, सत्य और पूर्ण मानकर उसमें विश्रांति पाता है, जहाँ संदेह मिट जाता है, भय समाप्त हो जाता है और आत्म-प्रकाश ही अंतिम आधार बन जाता है।
*2. विश्वास का दार्शनिक स्वरूप : मन–बुद्धि–चेतना की एकता*
दार्शनिक दृष्टि से विश्वास केवल भावनात्मक अवस्था नहीं, बल्कि मन, बुद्धि और चेतना की एक गहन संगति है जहाँ संदेह शांत होता है, तर्क संतुलित होता है और चेतना अपने मार्ग के प्रति निश्चय प्राप्त करती है। श्रद्धा जहाँ हृदय में अंकुरित होती है, वहीं विश्वास अनुभव से पुष्ट होकर जीवन-वृक्ष बन जाता है। वैदिक साहित्य विश्वास को *“अंतर्मन का आलोक”* कहता है कि वह प्रकाश जिसके सहारे मनुष्य अनिश्चितताओं में भी धैर्यपूर्वक सत्य के मार्ग पर चलता है। ऋग्वेद कहता है— *“सत्यं बृहदृृतमुग्रं दीक्षां तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति।”* (10.190.1) अर्थात् सत्य, नियम, तप और ब्रह्म का तत्त्व ही विश्व को स्थिर रखते हैं और उसी में विश्वास का दार्शनिक आधार निहित है। विश्वास अंधता नहीं, बल्कि तर्क को दिशा देने वाला विवेक है; यह बुद्धि का विरोध नहीं, बल्कि बुद्धि और हृदय का संतुलित मिलन है। जिस व्यक्ति में विश्वास होता है, वह परिस्थितियों से नहीं, अपने भीतर की स्थिरता से संचालित होता है। इसलिए भारतीय दर्शन विश्वास को मानव जीवन की अंतर्ज्योति और आत्मयात्रा का आधार मानता है।
*3. विश्वास का मनोवैज्ञानिक आधार : अनुभव, संस्कार और सुरक्षा का संयुक्त रूप*
मनोवैज्ञानिक स्तर पर विश्वास कोई आकस्मिक घटना नहीं, बल्कि अनुभव, संस्कार, संबंध और वातावरण की एक दीर्घ प्रक्रिया है। बचपन में प्राप्त सुरक्षा-बोध, स्नेह, संवाद और स्वीकृति व्यक्ति में आत्मविश्वास का निर्माण करते हैं; सामाजिक संबंध और जीवन-स्थितियाँ परविश्वास को जन्म देती हैं और आध्यात्मिक अनुभव परमविश्वास को विकसित करते हैं। विश्वास मनोवैज्ञानिक सुरक्षा का केंद्र है, इसी सुरक्षा से मन में स्पष्टता आती है, निर्णय संतुलित होते हैं और संबंधों में स्थिरता आती है। गीता के अनुसार — *“जितात्मनः प्रशान्तस्य, परमात्मा समाहितः।”* (6.7) अर्थात् जिसने अपने मन पर विजय पा ली, उसके भीतर परमात्मा का प्रकाश प्रकट होता है जो स्थिर विश्वास का मनोवैज्ञानिक स्वरूप है। कठोपनिषद कहता है— *“प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।”* अर्थात् मन की शांति और विश्वास सभी दुःखों का नाश करते हैं। इसी प्रकार विश्वासहीनता व्यक्ति को शंका, भय और बेचैनी से भर देती है। इसीलिए मनोविज्ञान विश्वास को जीवन की आध्यात्मिक और मानसिक स्थिरता का आधार मानता है।
*4. संवेदना से साहस और साहस से विश्वास : आत्म-विकास की क्रमिक यात्रा*
संवेदना वह प्रारंभिक लहर है जो मनुष्य को दूसरों के सुख-दुःख से जोड़ती है, लेकिन संवेदना में ऊर्जा है, दिशा नहीं; भावना है, स्थिरता नहीं। यह दिशा और स्थिरता तब मिलती है जब संवेदना के साथ साहस जुड़ता है, क्योंकि साहस ही अनुभूति को कर्म में बदलता है। लेकिन साहस भी तभी स्थिर और प्रभावी होता है जब भीतर विश्वास हो।विश्वास साहस को टूटने नहीं देता, उसे परिपक्व रूप देता है। कठोपनिषद का मंत्र— *“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य, वरान् निबोधत।”* व्यक्ति को आंतरिक जागृति, साहस और विश्वास की ओर प्रेरित करता है। मुंडक उपनिषद कहता है— *“नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो… यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः।”* अर्थात् आत्मा का प्रकाश भीतर की स्वीकृति और विश्वास से प्रकट होता है। संवेदना से साहस और साहस से विश्वास की यह यात्रा मनुष्य को बाहरी भ्रमों, भय और संदेहों से ऊपर उठाती है और अंततः उसकी वृत्ति को स्थिर, संतुलित और लक्ष्यनिष्ठ बनाती है।
*5. विश्वास की कार्यशक्ति : असम्भव को सम्भव बनाने वाली ऊर्जा*
विश्वास वह शक्ति है जो “शायद होगा” को “निश्चित होगा” में बदल देती है और “असंभव है” को “साध्य है” बना देती है। मन, बुद्धि और कर्म की स्थिरता का यह केंद्र है, जो निर्णयों को स्पष्ट करता है, लक्ष्यों को दृढ़ करता है और प्रयासों को निरंतर बनाता है। विश्वासयुक्त व्यक्ति परिस्थितियों का दास नहीं होता, बल्कि परिस्थितियों को अपने संकल्प के अनुरूप प्रभावित करने की क्षमता रखता है। गीता में लिखा है — *“धृत्या यया धार्यते मनःप्राणेन्द्रियक्रिया…”* (18.33) अर्थात् जो धैर्य और विश्वास से मन व इंद्रियों को स्थिर रखे, वही सात्त्विक निश्चय है। अथर्ववेद इसे — *“संकल्पो मे विजयस्तु।”* संकल्प की विजय कहता है यानि विश्वास रहित व्यक्ति प्रतिकूलताओं से घबराता है, जबकि विश्वासयुक्त व्यक्ति उन्हीं प्रतिकूलताओं को अपनी शक्ति और विकास के अवसर में बदल देता है। इस प्रकार विश्वास केवल मनोबल ही नहीं, बल्कि संपूर्ण जीवन-शक्ति है।
*6. विश्वास और संदेह : संतुलन की मनो-दार्शनिक आवश्यकता*
विश्वास मन को स्थिरता देता है, जबकि संदेह उसे सजग बनाता है। दोनों का संतुलन ही मनोविकास का वास्तविक मार्ग है। रचनात्मक संदेह तर्क और विवेक जगाता है, गलत मार्ग से बचाता है और मन को सत्य की ओर धकेलता है; परंतु भय-जनित संदेह विनाशकारी होता है। वह मनुष्य को भ्रमित, अस्थिर और नकारात्मक बना देता है। इसी प्रकार अति-विश्वास भी अविवेक का कारण बन सकता है। इसीलिए तैत्तिरीय उपनिषद कहता है— *“यतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह।”* जहाँ बुद्धि और मन दोनों रुक जाते हैं, वहीं विश्वास का प्रारंभ होता है। ऋग्वेद मन की शक्ति को स्वीकार करते हुए कहता है— *“अयं मे हस्तो भगवान्, अयं मे भगवत्तरः।”* अर्थात् जिसने अपनी आंतरिक शक्ति पहचान ली, उसके लिए संदेह एक नियंत्रित साधन बन जाता है, न कि बाधा। संतुलन ही विश्वास का परिपक्व स्वरूप है।
*7. आध्यात्मिक मार्ग में विश्वास : साधना की आत्मा और साधक का आधार*
आध्यात्मिक साधना का आधार तकनीक या विधि नहीं, बल्कि विश्वास है। गुरु-शिष्य संबंध की नींव भी विश्वास ही है—जहाँ विश्वास टूटता है, वहाँ ज्ञान का आदान-प्रदान भी समाप्त हो जाता है। गीता के अनुसार — *“श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्।”* (4.39) अर्थात् श्रद्धा वाला ही ज्ञान प्राप्त करता है। श्वेताश्वतर उपनिषद में लिखा है — *“श्रद्धाभक्ति-ध्यानयोगादवाइह।”* अर्थात् श्रद्धा, भक्ति और ध्यान से ही आत्मा का प्रकाश प्रकट होता है। विश्वास साधना को केवल अभ्यास नहीं, बल्कि अनुभूति में बदल देता है। ध्यान को समाधि में, मंत्र को अनुभूति में और तप को तेज में परिवर्तित करता है। जो साधक विश्वास रखता है, वह मार्ग पर दृढ़ रहता है और अंततः लक्ष्य को प्राप्त करता है; जो शंका में डगमगाता है, वह स्वयं ही अपने मार्ग को काट देता है। इसलिए आध्यात्मिक यात्रा में विश्वास ही साधक की श्वास है।
*8. विश्वास का टूटना और पुनर्निर्माण : मानव-चेतना की गहन प्रक्रिया*
विश्वास का टूटना साधारण घटना नहीं, बल्कि एक गहन मनोवैज्ञानिक आघात है, जो व्यक्ति को भीतर तक हिला देता है। जब विश्वास टूटता है, तो व्यक्ति न केवल दूसरे पर, बल्कि स्वयं पर भी संदेह करने लगता है बल्कि उसके निर्णय, संबंध और भावनाएँ सब अस्थिर हो जाते हैं। पुनर्निर्माण की पहली सीढ़ी स्वीकार है; जो घटना को, अपने दर्द को और अपनी सीमाओं को स्वीकार करती है। दूसरी सीढ़ी संवाद है— जो अपने भीतर के दर्द से संवाद और आवश्यक हो तो संबंधों में स्पष्ट संवाद होता है। तीसरी सीढ़ी समय है— क्योंकि नया विश्वास तुरंत नहीं बनता। गीता समत्व है— *“सुखदुःखे समे कृत्वा, लाभालाभौ जयाजयौ।”* (2.38) अर्थात् संतुलन ही पुनर्निर्माण की शक्ति है। अथर्ववेद कहता है— *“मनसः कामान् मनसा कल्पयामि।”* अर्थात् मन ही अपनी नई शक्ति स्वयं रचता है। नया विश्वास पुराने जैसा नहीं होता बल्कि वह अधिक परिपक्व, सतर्क और संतुलित होता है।
*9. समाज और राष्ट्र के संदर्भ में विश्वास : सभ्यता की अदृश्य, पर मूल शक्ति*
समाज और राष्ट्र केवल व्यवस्था, कानून या संस्थानों से नहीं चलते बल्कि उनकी नींव परस्पर विश्वास पर टिकी होती है। जहाँ विश्वास होता है वहाँ सहयोग, समरसता, संवाद और विकास होता है; जहाँ विश्वास समाप्त हो जाता है, वहाँ समाज टूटता है, परिवार बिखरते हैं और राष्ट्र कमजोर हो जाता है। ऋग्वेद कहता है— *“संगच्छध्वं संवदध्वं, सं वो मनांसि जानताम्।”* (10.191.2) अर्थात् एकता, संवाद और सामंजस्य राष्ट्र को स्थिर रखते हैं। अथर्ववेद जोड़ता है— *“समानी व आकूति: समाना हृदयानि वः।”* अर्थात् समान संकल्प और समान हृदय वाला समाज ही समृद्ध होता है। नेतृत्व की विश्वसनीयता, संस्थाओं की पारदर्शिता और नागरिकों का परस्पर विश्वास; यह तीनों किसी भी राष्ट्र की सबसे बड़ी पूँजी हैं। विश्वास टूटे तो सभ्यता का पतन आरंभ हो जाता है; विश्वास बने तो राष्ट्र उत्कर्ष को प्राप्त करता है।
*10. अंधविश्वास और विवेकपूर्ण विश्वास : ज्ञान और अज्ञान का द्वंद्व*
विश्वास के दो स्वरूप हैं—विवेकपूर्ण विश्वास और अंधविश्वास। विवेकपूर्ण विश्वास अनुभव, सत्य और तर्क पर आधारित होता है और व्यक्ति को स्वतंत्रता तथा जागरूकता प्रदान करता है; जबकि अंधविश्वास भय, भ्रम, अज्ञान और असुरक्षा से जन्मता है और व्यक्ति को बंधन, भ्रम तथा अंधकार में धकेल देता है। ईशोपनिषद इस भ्रम की चेतावनी देते हुए कहता है— *“अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः…”* अर्थात् अज्ञान में रहकर स्वयं को ज्ञानी समझना अंधविश्वास का रूप है। ऋग्वेद के अनुसार — *“अविद्याम् बहुधा वदन्ति विद्याम् च।”* अर्थात् अज्ञान और ज्ञान का विवेक ही धर्म है। आध्यात्मिक परंपरा कहती है कि आँख बंद कर लेना विश्वास नहीं, बल्कि भ्रम का द्वार है; जबकि जागृत बुद्धि और स्थिर हृदय से स्वीकार करना ही वास्तविक विश्वास है। इसलिए विवेकपूर्ण विश्वास ही व्यक्ति को विकास, स्वतंत्रता और सत्य की ओर ले जाता है।
*11. विश्वास का संवर्धन : स्वाध्याय, साधना और समत्व की आवश्यकता*
विश्वास का संवर्धन साधना के समान आवश्यक है, क्योंकि विश्वास एक बार बन जाए तो भी समय, परिस्थितियों और चुनौतियों से वह डगमगा सकता है। इसलिए विश्वास के विकास हेतु चार प्रमुख साधन आवश्यक हैं—(1) स्वाध्याय, जो संदेहों को दूर करता है और मन को सही दिशा देता है; (2) साधना, जो मन को स्थिर करती है; (3) सत्संग, जो दृष्टि को व्यापक और सकारात्मक बनाता है और (4) समत्वभाव, जो परिणामों के भय को हटाकर मन को संतुलित करता है। योगसूत्र कहता है— *“अभ्यासेन तु वैराग्येण च गृह्यते।”* अर्थात् अभ्यास और समत्व से ही मन स्थिर होता है। अथर्ववेद के अनुसार — *“शं नो मनः शांतिरेधि।”* अर्थात् मन की शांति ही विश्वास का आधार है। इसलिए विश्वास को निरंतर साधना, सीख और विवेक से पोषित करना पड़ता है।
*12. उपसंहार : विश्वास — जीवन, संबंध, साधना और सभ्यता की जड़*
विश्वास वह केन्द्रीय शक्ति है जिसके बिना संवेदना अस्थिर, साहस क्षीण और वृत्ति विकृत हो जाती है। विश्वास ही मन को स्पष्टता, बुद्धि को दिशा और हृदय को शांति देता है। विश्वासहीन जीवन शंका, भय और अस्थिरता का मार्ग है, जबकि विश्वासयुक्त जीवन निश्चय, उद्देश्य और प्रकाश का मार्ग बन जाता है। महाभारत में कहा गया — *“श्रद्धा हि परमं तपः, श्रद्धा सर्वार्थसाधनी।”* अर्थात् श्रद्धा ही सबसे बड़ा तप और हर सिद्धि की मूल शक्ति है। बृहदारण्यक उपनिषद कहता है— *“सत्यं ब्रूयात्, प्रियम् ब्रूयात्।”* अर्थात् सत्य और श्रद्धा ही मानव-धर्म की स्थायी जड़ें हैं। इसी से स्पष्ट है कि विश्वास केवल एक भावनात्मक अवस्था या दार्शनिक अवधारणा नहीं, बल्कि मानव अस्तित्व की मूल जड़ जिससे जीवन, कर्म, संबंध, साधना, समाज और सभ्यता यह सब पुष्पित-पल्लवित होते हैं। विश्वास ही वह प्रकाश है जिससे मनुष्य स्वयं को, संसार को और परम सत्य को पहचान पाता है।
✍️ योगेश गहतोड़ी “यश”
मोबाईल: 9810092532
नई दिल्ली – 110059




