
आपके साहित्यिक जीवन की शुरुआत कैसे हुई?
पत्रकारिता का डिप्लोमा (वर्ष 1988) करने के दौरान वहाॅं के समाचार-पत्र में एक छोटा-सा लेख ॲंग्रेजी में दिल्ली स्थित कमल मंदिर विषय पर प्रकाशित हुआ था। हिंदी में पहली रचना (वर्ष1989) कादंबिनी में प्रकाशित हुई थी।
लेखन की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली?
मेरे भाई डॉ.अरुण कुमार वार्ष्णेय से। उन्होंने कहा था कि मैं इस क्षेत्र में अच्छा काम कर सकती हूॅं। तब मैंने इस तरफ ध्यान दिया और लिखना शुरु किया।
पहला लेखन अनुभव कैसा रहा?
अच्छा था क्योंकि कमल मंदिर विषयक लेख भले ही छोटा था, लेकिन कक्षा में इसकी चर्चा की गई थी और इसे खोजी पत्रकारिता का उदाहरण बताया गया था, क्योंकि उस समय यह मंदिर नया-नया ही बना था और इसके बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते थे। कक्षा के किसी भी दूसरे विद्यार्थी की रचना को खोजी पत्रकारिता के अंतर्गत नहीं रखा गया था, लेकिन मेरी रचना को इस वर्ग में रखा गया था। इसलिए विशिष्ट होने की अनुभूति हुई थी।
किन साहित्यकारों या व्यक्तित्वों से आपने प्रेरणा ली?
आरंभिक दौर में मेरा व्यक्तित्व काफी कुछ किताबी रहा है। हर समय कुछ-न-कुछ पढ़ती रहती थी। आत्मकथाऍं भी खूब पढ़ी थीं। सभी से कुछ-न-कुछ ग्रहण किया है। मेरे आस-पास के वातावरण का प्रभाव भी मुझ पर पड़ता रहा है। इस तरह सभी का मिला-जुला प्रभाव मेरे ऊपर पड़ा है।
आपके लेखन का मूल विषय या केंद्र क्या है?
शुरुआती दिनों में विषय चयन करने में दिक्कत होती थी। जो भी विषय मिलता था, उस पर लिखना शुरु कर देती थी। लेकिन धीरे-धीरे मेरा लेखन हिंदी और विज्ञान के विषयों पर केंद्रित होता चला गया। वैसे अभी भी अन्य विषयों पर लेखन चलता रहता है।
आप किन सामाजिक या मानवीय मुद्दों को अपने लेखन में प्रमुखता देते हैं?
विज्ञान लेखन से समाज में व्याप्त अंध-विश्वासों को दूर करने में सहायता मिलती है। वैसे भी इन दिनों समाज निरंतर बदलता रहा है, वैज्ञानिक सोच भी रखने लगा है और विज्ञान से जुड़ने भी लगा है। इसलिए विज्ञान लेखन का उपदेशात्मक होने की आवश्यकता नहीं रह गई है। तथ्य प्रस्तुत कर देने भर से समाज वस्तुस्थिति समझ लेता है। इसके साथ-साथ, आधारभूत विज्ञान के विषयों का लेखन विद्यार्थियों की वैज्ञानिक सोच को गहरा करती है।
इसके अलावा, आत्मनिर्भर भारत के लिए भारतीय भाषाऍं अपनाने का महत्व, महिलाओं की स्थिति, किन्नर जैसे समाज के उपेक्षित वर्ग, आदि विषयों पर भी लेखन किया है।
वर्तमान समय में साहित्य की भूमिका को आप कैसे देखते हैं?
साहित्य की भूमिका पहले जैसी नहीं रही है। बदलते समय के साथ उसमें परिवर्तन होना स्वाभाविक है। लच्छेदार भाषा के जाल में पाठक फॅंसना नहीं चाहता। उपदेश भी किसी को गवारा नहीं होता। सभी खुद को सयाना मानते हैं। उन्हें केवल वस्तुस्थिति बता दी जाए। बाकी वे खुद तय कर लेंगे कि उन्हें क्या चाहिए। इसलिए साहित्य को तटस्थ भी रहना है और पाठक से जुड़ा हुआ भी रहना है।
साहित्य में तथ्य और भाव में से सभी तथ्य चुनना चाहते हैं। इससे साहित्य की भाव-भूमि को कथ्य-तथ्य से भरपूर होना जरूरी हो गया है।
पाठक लीक से हट कर नए विषयों को वरीयता देने लगा है। इसलिए यदि साहित्य में नए विषय हों, अनछुए विषय हों, समसामयिक हों, ज्वलंत विषय हों, पुराने विषय नए दृष्टिकोण के साथ हों, तो पाठक पढ़ना पसंद करता है। इसलिए अब साहित्य का पाठकोन्मुखी होना आवश्यक है, जिसमें साहित्यकार अपना फ्लेवर भी मिला सकता है।
हिंदी भाषा के साहित्य में अवसाद ने काफी जगह घेर ली है। हृदय-स्पर्शी रचना लिखने के लिए दु:ख-दर्द अनिवार्य घटक बन गया है। लेकिन पाठकों के पास दु:ख-दर्द पहले से ही बहुत है। साहित्य में भी वही सब मिले तो पाठक साहित्य से विमुख ही होगा। ऐसा साहित्य पढ़ कर कोई भी पाठक और-भी बोझिल होना नहीं चाहेगा। इसलिए अवसाद का पक्ष संतुलित किया जाना चाहिए।
क्या साहित्य समाज को बदल सकता है, या केवल उसका प्रतिबिंब भर है?
समाज में घटने वाली घटनाऍं साहित्य में अपना स्थान बनाती चलती हैं, लेकिन इसके साथ-साथ, उन घटनाओं में से क्या ग्रहण करना चाहिए और क्या छोड़ देना चाहिए, इसका संकेत भी साहित्य करता है। इसका प्रभाव सजग पाठक के अलावा सामान्य पाठक पर भी सूक्ष्म रूप से पड़ता रहता है, जिससे उसकी सोच बदलती है, आचरण बदलता है, व्यक्तित्व तक बदल जाता है। इसके फलस्वरूप समाज में परिवर्तन घटित होता है।
आपकी रचनाओं में भाषा और शैली की विशिष्टता क्या है?
जैसा विषय, वैसी भाषा-शैली। विज्ञान के विषय तथ्यपरक होते हैं। इसलिए विज्ञान-साहित्य में साहित्यिक पांडित्य का प्रदर्शन कोई मायना नहीं रखता। विचार संप्रेषण प्रमुख होता है। शब्दावली भी विज्ञानपरक होती है।
क्या आप परंपरागत भाषा प्रयोग के पक्षधर हैं या आधुनिक प्रयोगधर्मी शैली के?
विषय पर केंद्रित रहने पर लेखन की भाषा-शैली तदनुसार स्वयं ही अपना मार्ग विकसित कर लेती है। उदाहरण के लिए, परमाणु विषयक लेखन में प्राचीन भारत का ज्ञान-विज्ञान स्वत: ही परंपरागत भाषा प्रयोग का चयन कर लेगा, लेकिन आधुनिक विज्ञान के संदर्भ में इसकी अभिव्यक्ति आधुनिक शैली में सहज होगी, जिसमें आधुनिक विज्ञान की शब्दावली का प्रयोग भी किया जाएगा।
इतना अवश्य है कि लेखक की अपनी अभिरुचि, विशिष्टता, भाषा-ज्ञान, आदि का प्रभाव लेखन में अपनी जगह बनाता है, जिससे लेखक की पृथक शैली विकसित होती चली जाती है।
पाठक वर्ग को ध्यान में रखकर आप अपनी भाषा चुनते हैं या स्वाभाविक रूप से लिखते हैं?
मेरा ध्यान विषय पर केंद्रित रहता है। विषय की आवश्यकता के अनुसार मेरी भाषा स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त होती है। लेखन पूरा हो जाने के बाद, विशेषज्ञ वर्ग ही यह तय करता है कि इसे किस पाठक वर्ग में वर्गीकृत किया जाए : बाल साहित्य या वृद्ध साहित्य, महिला साहित्य या पुरुष साहित्य, विज्ञान साहित्य या कुछ भी नहीं।
आज के समय में साहित्य किन चुनौतियों का सामना कर रहा है?
आज के समय में लोग अपने कैरियर के पीछे लगे हुए हैं। कैरियर के लिए जितना आवश्यक होता है, बस उतना ही पढ़ते हैं। पाठकों में साहित्य पढ़ने की रुचि उत्पन्न करना ही सबसे बड़ी चुनौती है। स्वांत:सुखाय साहित्य के लिए कोई चुनौती कभी नहीं रही है। इंग्लिश मीडियम से साक्षर नई पीढ़ी की तैयारी भारतीय भाषाओं का साहित्य पढ़ने के लिए बिल्कुल नहीं है। उसके लिए इंग्लिश लिटरेचर पढ़ना ज्यादा सुगम है।
सोशल मीडिया और इंटरनेट युग में साहित्य की स्थिति को आप कैसे आंकते हैं?
अब लोगों का रुझान साहित्य पढ़ने में अधिक नहीं रहा है। प्रिन्ट मीडिया ही नहीं, सोशल मीडिया में भी साहित्य साक्षरों को अपनी तरफ आकर्षित नहीं करता है। आपाधापी के इस दौर में सभी जल्द से जल्द सामग्री स्क्रोल कर के आगे बढ़ जाना चाहते हैं, जबकि साहित्य शांतिपूर्वक ग्रहण किया जाता है। ऐसे में साहित्य के साथ दिए जाने वाले उसके महत्वपूर्ण बिंदु या हाइलाइट्स ही पढ़े जाते हैं। यदि इन बिंदुओं से पाठक प्रभावित होते हैं, तो वे पूरा कथ्य पढ़ने के लिए अग्रसर हो सकते हैं अन्यथा आगे बढ़ जाते हैं।
क्या आज के युवा लेखकों में रचनात्मकता और संवेदना पहले जैसी है?
आज के युवा लेखकों में रचनात्मकता और संवेदना भरपूर है। उनमें किसी प्रकार का संकोच भी दिखाई नहीं देता है और वे अपनी बात खुलकर सामने रखते हैं। लेकिन इस वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा इंग्लिश में अभिव्यक्त हो रहा है।
पुरस्कारों और सम्मान की राजनीति पर आपका क्या दृष्टिकोण है?
पुरस्कारों और सम्मान की राजनीति पर बहस हमेशा होती रही है। लेकिन अब एक वर्ग ऐसा भी उत्पन्न हो गया है, जो इसी से अपनी आजीविका चलाता है। यह वर्ग वर्ष भर कोई-न-कोई सम्मान बाॅंटता रहता है और पंजीकरण के नाम पर मोटी राशि वसूलता है। महिलाऍं इनकी आसान शिकार होती हैं। कई पुरुष साहित्यकार भी निन्यानवे के फेर में पड़े रहते हैं। बायोडाटा में शताधिक पुरस्कार प्राप्त लिखने पर प्रभाव तगड़ा पड़ता है।
क्या आज का लेखक अपने पाठक से जुड़ पा रहा है?
लेखन तो बहुत हो रहा है, लेकिन पढ़ने वाले नदारद हैं। इसलिए पाठकों से लेखक के जुड़ने का प्रश्न ही नहीं उठता है।
प्रकाशन जगत में नए लेखकों को क्या कठिनाइयाँ हैं?
सोशल मीडिया के युग में प्रकाशित होने की समस्या नहीं रह गई है। अपना अकाउन्ट बना कर अपनी रचनाऍं प्रकाशित की जा सकती हैं। आर्थिक समस्या से पार पाना शेष है। संपन्न पाठक इंग्लिश के पास हैं, जबकि हिंदी जैसी भारतीय भाषाओं में अभी भी फ्री में पढ़ने का चलन जारी है।
क्या व्यावसायिकता ने साहित्य की आत्मा को प्रभावित किया है?
अच्छा माल हमेशा बिकता है। व्यावसायिकता से साहित्य की ब्रांडिंग अच्छी हो जाती है, जिससे उसके बिकने की संभावना प्रबल हो जाती है। दैनिक समाचार पत्रों की बात अलग है। वहाॅं समय कम होता है और तुरंत लिख कर देना होता है, जिससे साहित्य का स्तर प्रभावित हो सकता है। वैसे घटिया साहित्य और पीत पत्रकारिता हमेशा रहे हैं।
आप आज के समाज में साहित्य की उपयोगिता को कैसे परिभाषित करते हैं?
साहित्य में समाज की झलक होने के कारण यह ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो अपने समय का देश-काल साकार कर देते हैं। अयोध्या में राम मंदिर यूॅं ही नहीं बन गया। कोर्ट में अनेक उद्धरण साहित्य से भी प्रस्तुत किए गए थे।
आपकी लेखन दिनचर्या कैसी है?
अनियमित।
क्या आप किसी विशेष वातावरण या समय में लिखना पसंद करते हैं?
नहीं।
लेखन में आने वाले अवरोधों (writer’s block) से आप कैसे निकलते हैं?
लिखना शुरु कर देती हूॅं। जब पूरा हो जाता है, लिखना बंद कर देती हूॅं। खाका तैयार हो जाने पर उसे सुधार कर अंतिम रूप देना आसान हो जाता है।
क्या आप अपने लेखन में आत्मानुभव का प्रयोग करते हैं?
यदि मुख्य विषय को मेरे आत्मानुभव से सपोर्ट मिलता है, तो उसका प्रयोग कर लेती हूॅं, अन्यथा विषय के अनुरूप लेखन करती हूॅं।
आने वाले समय में आपके कौन-कौन से साहित्यिक प्रोजेक्ट या पुस्तकें प्रस्तावित हैं?
मुंबई के पक्षी-गण, गाॅंधी ॲंग्रेजी नहीं जानता, बुद्ध मुस्कराए, हाइकु रचनाओं की पुस्तक, आदि।
नई पीढ़ी के लेखकों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
सकारात्मक सोच के साथ लेखन करें। स्वयं पर विश्वास रखें, अपनी भाषा पर विश्वास रखें। उतावलेपन से बचें क्योंकि जो सहज पके, सो मीठा होए।
क्या साहित्य आज भी समाज में बदलाव लाने की ताकत रखता है?
हाॅं। जल संरक्षण, प्रदूषण, प्लास्टिक कचड़ा, वैश्विक तापमान में वृद्धि, आदि अनेक विषयों पर लिखे साहित्य ने समाज की सोच बदली है, नजरिया बदला है, जागरूकता उत्पन्न की है, बदलाव की आधार-भूमि तैयार की है।




