- मानस में गोस्वामी तुलसी जी ने लिखा है कि-
“अस को है जन्मा जग माहीं।
प्रभुता पाई काहि मद नाहिं।।”
अर्थात प्रभुता और मद का अन्योनाश्रित सम्बंध होता है।यही मद भक्त को भगवान से,साधक को साधना से और मनुष्यों को अपने परिवार तथा समाज से अलग करता है या करने की कुचेष्टा करता है।रामचरित मानस में ही मनुष्यों के अंतरतम में छिपे गुप्त शत्रुओं का उल्लेख करते हुए गोस्वामी जी ने लिखा है कि-
“तब लगि बसहिं हृदय खल नाना।
लोभ क्रोध मत्सर मद माना।।
जब लगि उर न बसहिं रघुनाथा।
धरे चाप सायक धरि भाथा।।”
ध्यातव्य है कि यहां रघुनाथ अर्थात मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की का उल्लेख उत्तम नैतिक चरित्र से युक्त एक महान जीवनवृत्त से है।श्रीराम जी का पूरा जीवनवृत्त संस्कारों की श्रेष्ठ परंपरा और मर्यादाओं का सागर है।इसप्रकार कहा जा सकता है कि अहंकार रूपी शत्रु से संस्कार रूपी गंगा ही तार सकती है।हिंदी साहित्य का भक्तिकाल भी कदाचित ऐसे ही दृष्टांतों से पुष्ट और समृद्ध है।तभी तो कहा गया है –
जब मैं था तब हरि नहीं,अब हरि हैं मैं नाहिं।
अब अंधियारा मिट गया,जब दीपक देखा माहिं।।
इससे सिद्ध होता है कि अहंकार तबतक ही प्रभावशाली और क्रियाशील रहता है,जबतक मनुष्य प्रभु की शरण में अनन्य भाव से स्वयं को समर्पित करते हुए नाम संकीर्तन नहीं करता अर्थात श्रेष्ठ संस्कारों से स्वयं को अभिसिंचित नहीं करता है।
संस्कार एवम अहंकार दोनों ही मानव द्वारा अर्जित मनोवैज्ञानिक की दृष्टि में जीवन की पद्धतियों को निर्देशित करने वाले प्रधान तत्व हैं।संस्कार का सम्बंध जहां सांस्कृतिक दृढ़ता और बंधुत्व से होता है वहीं अहंकार इन दोनों से विहीन स्वेच्छाचारिता का परिणिति होता है।सार संक्षेप में संस्कार फलदायी हरे वृक्षों की शाखाओं की तरह झुकने और अहंकार सूखे ठूंठ पेड़ों की तरह ऐंठने की प्रवृत्तियों के मेल हैं।जिनसे व्यक्तित्व का निर्माण कदाचित होता भी है और नष्ट भी होता है।।
वैश्विक पटल पर ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां अहंकारियों ने अपने मद और दम्भ में मानवता का विनाश किया है जबकि ऐसे भी हजारों दृष्टांत हैं कि संस्कारित महामना लोगों ने अंगुलिमाल जैसे डाकुओं को भी अपावन से पावन किया है।इसप्रकार मनुष्य के अपावन स्वरूप को परिमार्जित करने वाला आचरण रुपी गंगाजल ही संस्कार कहलाता है।
मनोविज्ञान जहां इड, ईगो,सुपर ईगो में विभेद स्थापित करते हुए श्रेणीबद्ध अध्ययन प्रस्तुत करता है वहीं महात्मा कबीर दास “मैं” अर्थात”अहम” अर्थात अहंकार को प्रभुप्राप्ति में सबसे बड़ा रोड़ा मानते हैं।”जब मैं था तब हरि नहीं”कहकर महात्मा कबीर अहंकार के इसी विनाशात्मक स्वरूप का का वर्णन करते हैं।जिसके चलते व्यक्ति अपनी भौतिक शक्तियों को देखकर स्वयम को ईश्वर से अधिक प्रभुतासम्पन्न मानने लगता है।कदाचित यही स्थिति मानव के विनाश और अधोपतन की वास्तविक समयरेखा खिंचती है।इसप्रकार अहंकार मनुष्य की अनश्वर शक्तियों को भी तुच्छ और नश्वर बनाने का उत्तरदायी कारक है।कहा गया है कि-
जब मैं था तब हरि नहीं,अब हरि हैं मैं नाहिं।
सब अंधियारा मिट गया,जब दीपक देख्या माहिं।।
जबकि इसके ठीक विपरीत संस्कार के फल और बीज रूपी ज्ञान तथा भक्ति व्यक्ति को परमात्मा से तादात्म्य स्थापित कराते हुए उसके स्व को जागृत करते हुए उसे अहम ब्रह्मास्मि की चैतन्य अवस्था से परिचित कराते हैं।जहाँ किसी भी प्रकार के विभेद और सांसारिक बंधनो का मोल नहीं होता है।यही अवस्था एको अहम द्वितीयोनास्ति को साकार करके के जीवन को अतिविशिष्ट बनाती है।
वस्तुतः भौतिक पदार्थों की भांति संस्कारों का कोई मौद्रिक मूल्य नहीं होता है,कारण कि ये विनिमय के विषयवस्तु ही नहीं होते हैं,इन्हें खरीदा ही नहीं जा सकता है।संस्कार तो सचमुच में परिवेश और आचरण के प्रतिफल होते हैं।जिनका पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण और पुष्टिकरण होता है।पुष्टिकरण के अभाव में ये विनष्ट भी होते जाते हैं।जिससे आने वाली संततियां उद्दंड,झगड़ालू, नशेबाज और व्यसनी होने लगती हैं।यही कारण है कि हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों को प्रधानता दी गयी है,जोकि गर्भाधान से पिंडदान तक सम्पादित किये जाने चाहिए।इसप्रकार संस्कार आचरण की सभ्यता और मनुष्यों की शिष्टता के परिचायक होते हैं।जिनके अभाव में कोई भी व्यक्ति असामाजिक हो सकता है।आज आतंकवाद,जातिवाद,भाषावाद आदि सामाजिक बुराइयों के मूल में व्यक्तियों का असामाजिककरण होना ही है।
इतिहास साक्षी है कि दशानन रावण के पास विश्व की सर्वश्रेष्ठ सेना और उत्कृष्ट सेनापति थे,दुर्योधन के साथ इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त भीष्म पितामह,दानवीर कर्ण,स्वयं नारायण से भी अपराजेय आचार्य द्रोण, कृप और अन्यान्य सेनानायक थे,घनानंद के पास तत्कालीन भारत की अत्यंत विशाल सेना थी,जरासंध भी अपराजेय था किंतु ये सबकेसब पराजित भी हुए और इनका नामलेवा भी की नहीं है।इसका स्पष्ट कारण यह है कि जब लंका से मार कर निकाला गया विभीषण,किष्किंधा से बहिष्कृत सुग्रीव आदि समर्पण भाव से अहंकार से विमुख हो पूर्णरूप से श्रीहरि की शरण में आए तो उनकी रक्षा का दायित्व स्वयं नारायण का हो गया अर्थात मिथ्या अहंकार का विनाश ही संस्कार का श्रीगणेश होता है।यह तभी संभव है जब प्रभु का भजन,कीर्तन आदि नित्यप्रति किया जाय और मनसा,वाचा,कर्मणा में समन्वय के साथ एकत्व हो।साहस,सामर्थ्य और संबल से ही युद्ध नहीं जीते जाते। दुर्योधन के पास सबकुछ था,रावण भी महाप्रतापी था,कंस भी अपराजेय था किंतु सबकेसब हारे भी और मारे भी गये क्योंकि किसी के पास नारायण अर्थात प्रभु नहीं थे।
जहाँ प्रभु हों वहाँ रंक सुदामा भी राजा तुल्य ऐश्वर्य का स्वामी बन जाता है,किष्किंधा से खदेड़ा गया सुग्रीव और लंका से निष्कासित विभीषण भी राजा बन जाते हैं। इसलिए जनबल,धनबल से अधिक प्रमुख दैव बल है।प्रभु की शरण में जाना ही अभयदान है।यही संस्कारों का आदि उद्गम स्थल है,महासागर है।
परिवार संस्कारों की प्रथम पाठशाला होती है।परिवार ही व्यक्तियों को जीने का ढंग और सलीका सिखाते हैं जबकि विद्यालय उन्हें उन्नति और सफलता के तरीके बताते हैं।इन सबके बीच समाज और विभिन्न प्रकार के समुदायों के बीच पारस्परिक मेलजोल,मनमुटाव,खानपान,रहन-सहन आदि के तौर तरीकों से भी व्यक्ति तदनुरूप आचरण को अपने जीवनवृत्त में आत्मसात करते हुए तादात्म्य स्थापित करता रहता है।इसप्रकार कहा जा सकता है कि उत्तम नैतिक चरित्र के निर्माण की दिशा में परिवार,समाज और विद्यालयों की महती भूमिका है।इनमें से किसी एक का अधोपतन राष्ट्र को गर्त में धकेल सकता है।यही कारण है कि गतिशील समाज सदैव अच्छाइयों के अनुकरण व बुराइयों के नाश की कामना के साथ ही सदाचार और सदवृत्तियों से युक्त शिक्षा प्रणाली की वकालत करता है।
-डॉ.उदयराज मिश्र
समन्वय संपादक,टीजीटी प्रकाशन समूह
९४५३४३३९००
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