साहित्य

आओ लड़ें

वीणा गुप्त

उस दिन सुबह सुबह ही
एक सज्जन मिल गए।
अजनबी थे हमारे लिए,
लेकिन चेहरे पर पहचान ला
बोले वे हमसे-
“आओ लड़ें”
हम घबराए, सकपकाए,
सोचा मन में,
यह कैसा आमंत्रण है?
आओ गले मिलें,प्यार करें,
ऐसी बातें तो सुनी थीं।
पर यह तो एकदम नया
अनुभव हमारे लिए।

हमने सोचा ,मजाक कर रहे हैं,
या शायद हमने ,
कुछ गलत सुन लिया है।
क्षमा माँगते हुए पूछा
क्या आपने हमसे कुछ कहा?
वे खिझलाए,झल्लाए,
बुरा सा मुँह बना बोले-
हाँ,लड़ने को कहा है,
लड़ोगे क्या?

अब तो हमें यकीन हो गया
अनुभव की नवीनता से
चेहरा ग़मगीन हो गया।
आंँखों में भर हैरानी उन्हें
ताकने लगे।
कौन से जन्म में उन्हें देखा था,
यादाश्त को जांँचने लगे।

अभी कुछ समझ पाते,
कि सज्जन गुर्राए
यार! अजब आदमी हो
यूँ क्यों उजबक से
मुझे ताक रहे हो।
बात मेरी समझ नहीं आई क्या?
या जानबूझकर कन्नी काट रहे हो।

क्यों टैम बर्बाद करवा रहे हो।
हम पहल करें या तुम आ रहे हो।
कोई तुम अकेले नही हो,
हमें अभी कइयों से लड़ना है।
एक एक पै इतना टैम लगाएँगे,
तो कैसे पार पाएँगे।

हमने फिर उनकी ओर देखा,
बड़ी अड़ियल काया थी।
भगवान की विचित्र माया थी।
चेहरा भ्रष्टाचार सा दमक रहा था।
आंँखों में मंदिर-मस्जिद सा
मसला चमक रहा था।
हमारे तो तोते उड़ गए।
दिन में सारे तारे दिख गए।
सोचा-इसकी तो एक पटखनी में ही,
अपनी नानी मर जाएगी।
पूरी न सही ,आधी जान तो,
जरूर निकल जाएगी।

साहस बटोर गिड़गिड़ाए
भाईसाहब ! मुझे माफ करना,
लड़ने का मेरा कोई मूड नहीं है।
बच्चे को स्कूल छोड़ने जाना है।
घर में चाय के लिए भी दूध नहीं है।

बात हमारी उन्हें न भाई,
जुबान उनकी आप से
तू पर उतर आई।
बोले- यार !बोहनी तो तुझे करवानी ही पड़ेगी।
ज्यादा नहीं ,थोड़ी सी मार तो खानी ही पड़ेगी।
ज़रा ही देर में तेरा,
लड़ने का मूड बन जाएगा।
बीवी ,बच्चा,चाय,दूध,
कुछ याद न आएगा।

यह कह वह कमर कस कर
हमारी ओर लपके।
हम गिड़गिड़ाने लगे
खुद को बचाने लगे।
“क्या बिगाड़ा है मैंने तुम्हारा।
मैं तो तुम्हें जानता भी नहीं ,
फिर क्यों करते हो मुझसे लड़ाई?
तुम्हारी हमारी किस बात की दुश्मनी है भाई?”

वे मुस्कराए,कुछ पास आए,
बोले-तू भी बड़ा भोला है।
न कुछ भी समझता है।
कुछ बिगाड़ने पर भला ,
आज कौन लड़ता है?
कुछ बिगाड़ा नहीं तूने मेरा,
इसीलिए तो लडाई है।
लड़ाई का कॉनसेप्ट तो
तेरा क्लीयर है एकदम,
पर रीजन की समझ न तुझे आई है।

क्या बिगाड़ा था उस
ग़रीब ने किसी का,
जो साहूकार ने उसे मार दिया?
क्या गुनाह था उस बेटी का
जो उसे सरे आम लाचार किया?
क्या बिगाड़ा था मैंने किसी का,
जो तुमने मेरी आत्मा को मार दिया
धर्म और जाति की दे-दे दुहाई,
मुझे बरगलाया,
मेरे हाथों में पहला पत्थर,
तुमने ही थमाया।
मुझे लाशों के ढेर पर
खड़ा कर दिया,
खुद परे हो गए,
मुझे दोषी ठहराया
खुद बरी हो गए।

और अब लड़ने से घबराते हो,
नजरें चुराते हो।
देखो मेरे ये हाथ,
मेरे ही खून से भर गए हैं।
सभी अपने -पराए मुझसे,
किनारा कर गए हैं।

सहसा हँसा वह ,
फिर जोर से चिल्लाने लगा
बलि पशु जैसे कोई चिल्ला रहा हो।
किसी के झूठ को,
किसी के छल को,
मानो प्रकटा रहा हो।

मैं उसे चुपाने का,
बहलाने का,
उपाय सोचने लगा।
पर वह तो एकदम चुप हो गया था।
सारे विवाद से परे हो गया था।
यह उसकी अंतिम लड़ाई थी।
और इस लड़ाई में
उसने विजय पाई थी।

वीणा गुप्त
नई दिल्ली

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