
अभिव्यक्ति की
भारत लोकतंत्र है और लोकतंत्र की आत्मा है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। लेकिन यह स्वतंत्रता अब एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहाँ इसकी सीमा और जिम्मेदारी दोनों को नए सिरे से परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस हो रही है। बीते कुछ वर्षों में “अभिव्यक्ति की आज़ादी” का प्रयोग कई बार उस अर्थ में होने लगा है, जहाँ आज़ादी और अराजकता के बीच की रेखा धुंधली पड़ गई है। कोई धर्म के नाम पर घृणा फैलाता है, कोई सेना का अपमान करता है, कोई राष्ट्र की एकता पर सवाल उठाता है और फिर इसे “फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन” कहकर वैध ठहराने की कोशिश करता है। क्या यही वह आज़ादी है जिसकी कल्पना संविधान निर्माताओं ने की थी?
भारत के संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है, लेकिन अनुच्छेद 19(2) उसी आज़ादी पर “युक्तिसंगत प्रतिबंधों” (reasonable restrictions) की बात करता है ताकि राष्ट्र की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता, नैतिकता और मानहानि जैसे पहलू सुरक्षित रह सकें। इसका आशय स्पष्ट है कि स्वतंत्रता निरंकुश नहीं हो सकती।
किसी व्यक्ति या समूह को यह अधिकार नहीं कि वह राष्ट्र के प्रतीकों, धार्मिक भावनाओं या सामुदायिक सौहार्द को चोट पहुँचा कर उसे “रचनात्मक अभिव्यक्ति” कहे। जब अभिव्यक्ति का प्रयोग राष्ट्रविरोधी तत्वों के समर्थन में, या किसी वर्ग को भड़काने में किया जाता है, तब यह अधिकार नहीं, बल्कि दुरुपयोग बन जाता है।
डिजिटल युग में हर व्यक्ति एक “प्रसारक” बन गया है।
अब अभिव्यक्ति केवल लेख, कविता या गीत तक सीमित नहीं बल्कि ट्वीट, पोस्ट, वीडियो और रील के रूप में सर्वत्र फैल चुकी है।
समस्या यह है कि इस विस्तार के साथ विवेक का संकुचन भी बढ़ा है। कई बार यह मंच तथ्य नहीं, बल्कि झूठ, भ्रामकता और घृणा के प्रसार का माध्यम बन जाता है। और जब कोई कानून या अदालत उस पर लगाम लगाने की कोशिश करती है, तो “अभिव्यक्ति की आज़ादी खतरे में है” का शोर उठ जाता है। इस प्रवृत्ति को रोकना जरूरी है, क्योंकि आज़ादी की रक्षा तभी संभव है जब उसका उपयोग उत्तरदायित्व के साथ हो। कला, साहित्य और व्यंग्य का काम सत्ता की आलोचना करना है लेकिन उसकी मर्यादा राष्ट्र के हित से ऊपर नहीं हो सकती। कविता, फिल्म या गीत तब तक सम्माननीय हैं जब तक वे समाज को सोचने पर मजबूर करें, न कि बाँटने पर। नेहा सिंह राठौर जैसे कुछ कलाकारों के उदाहरणों से यह बहस और तीव्र हुई है कि क्या “कला” के नाम पर सब कुछ स्वीकार्य होना चाहिए?
उत्तर स्पष्ट है — नहीं।
अभिव्यक्ति की आज़ादी का अर्थ यह नहीं कि कोई व्यक्ति संविधान, राष्ट्रगान, तिरंगे या सैनिकों के बलिदान का उपहास करे। सच्ची आज़ादी वही है जो राष्ट्र निर्माण में सहायक हो, न कि विघटन में।
अदालतें समय-समय पर इस बहस में संतुलन बनाए रखती रही हैं। कभी उन्होंने अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा की है, तो कभी उसके दुरुपयोग पर रोक लगाई है।
परंतु अब यह स्पष्ट दिख रहा है कि एक संवैधानिक पुनर्परिभाषा की आवश्यकता है जिसमें यह तय हो कि आज़ादी की सीमा कहाँ तक है, और उससे आगे क्या “कानून का उल्लंघन” कहलाएगा। सरकार को भी यह सुनिश्चित करना होगा कि कानून का प्रयोग “राजनीतिक असहमति दबाने” के औजार के रूप में न हो, बल्कि राष्ट्रविरोधी या समाजविघातक गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए ही हो।
लोकतंत्र बिना आज़ादी के अधूरा है, लेकिन आज़ादी बिना अनुशासन के विनाशकारी हो जाती है।
जैसे एक नदी बाँध की मर्यादा में रहकर जीवन देती है, वैसे ही अभिव्यक्ति भी मर्यादा में रहकर समाज को सशक्त करती है।
आज यह संतुलन बिगड़ता दिख रहा है जहाँ आज़ादी का अर्थ “जो चाहो कहो” बन गया है। यह समय है कि समाज, न्यायपालिका और नीति-निर्माता मिलकर इस संतुलन को पुनः परिभाषित करें।
क्योंकि यदि अभिव्यक्ति की आज़ादी का अर्थ केवल विरोध रह जाए, तो संवाद मर जाएगा;
और यदि हर आलोचना पर दमन हो, तो लोकतंत्र।
भारत को अभिव्यक्ति की आज़ादी पर गर्व है, लेकिन इस गर्व को बचाए रखने के लिए जिम्मेदारी और अनुशासन दोनों आवश्यक हैं।
आज समय आ गया है कि हम इस आज़ादी को पुनर्परिभाषित करें
कि यह न तो भयभीत हो, न निरंकुश
न सत्ता से डरे, न समाज को तोड़े।
अभिव्यक्ति की आज़ादी वही है जो राष्ट्र की अस्मिता को सशक्त करे, नागरिकों में चेतना जगाए और लोकतंत्र को सशक्त बनाए।
अब समय है कि भारत इस अधिकार को “असीमित स्वतंत्रता” नहीं, बल्कि “उत्तरदायी आज़ादी” के रूप में परिभाषित करे
तभी यह आज़ादी, असली अर्थों में, लोकतंत्र की गरिमा और राष्ट्र की एकता को सुरक्षित रख सकेगी।
डाॅ.शिवेश्वर दत्त पाण्डेय
समूह सम्पादक
