
शहर के शोर और भागदौड़ से दूर, हिमालय की गोद में एक शांत कुटिया थी। कुटिया के चारों ओर ऊँचे देवदार के वृक्ष थे, जिनकी पत्तियों पर ओस की बूँदें सूरज की किरणों में चमक रही थीं। दूर बर्फ से ढके पहाड़ ऐसे लगते थे, मानो आकाश ने स्वयं सफेद वस्त्र ओढ़ लिए हों। वहाँ का वातावरण इतना शांत था कि लगता था, मानो प्रकृति स्वयं ही ध्यान में लीन है।
उसी कुटिया में एक वृद्ध साधु, ऋषि अनिरुद्ध जी, अपने युवा शिष्य नयन के साथ रहते थे। ऋषि जी का चेहरा तेज और शांति से भरा रहता था, जबकि नयन उत्सुकता और बेचैनी का मिश्रण था। वह पढ़ा-लिखा था, लेकिन उसका मन हमेशा किसी न किसी विचार या चिंता में उलझा रहता था।
नयन रोज ध्यान करने की कोशिश करता, लेकिन उसका मन कुछ ही क्षणों में भटक जाता। वह सोचता — “मैं इतना प्रयास करता हूँ, फिर भी मन स्थिर क्यों नहीं होता?” एक दिन थककर वह ऋषि अनिरुद्ध जी के पास पहुँचा और बोला — “गुरुदेव! मेरा मन शांत नहीं होता। कभी पुरानी बातें याद आती हैं, तो कभी भविष्य की चिंता सताती है। क्या मैं कभी शांति पा सकूँगा?”
ऋषि अनिरुद्ध जी ने नयन की ओर गहरी दृष्टि से देखा और शांत स्वर में बोले — “नयन, तू अभी *‘बहिष्प्राज्ञ’* की अवस्था में है। तेरी चेतना बाहर की ओर भाग रही है यानि वस्तुओं, शब्दों और अनुभवों की ओर। अब समय है भीतर की यात्रा करने का। उसी भीतर जाने की प्रक्रिया को अंतःप्राज्ञ कहते हैं।”
नयन ने जिज्ञासापूर्वक पूछा — *“गुरुदेव, भीतर की यात्रा कैसे की जाती है?”*
ऋषि मुस्कराए और बोले — “आज तू कुछ नहीं बोलेगा। न किसी से बात करेगा, न कुछ लिखेगा। बस बैठकर देखेगा और सुनेगा, लेकिन बाहर नहीं, अपने भीतर। आज अपने विचारों को देख, अपनी भावनाओं की ध्वनि को सुन।”
नयन ने आज्ञा मानी और कुटिया के बाहर एक पत्थर पर बैठ गया। पहले उसने हवा की सरसराहट सुनी, फिर पक्षियों की चहचहाहट और झरने का मधुर स्वर, लेकिन जब उसने अपनी दृष्टि भीतर मोड़ी, तो वहाँ विचारों का शोर, इच्छाओं की लहरें, अधूरे सपनों की परछाइयाँ से सामना करना पड़ रहा था, अब उसका मन एक तूफ़ान-सा बन गया।
अब दिन ढल गया, धीरे-धीरे अंधकार होने लगा। नयन, बेचैन होकर फिर गुरु जी के पास लौटा और बोला — “गुरुदेव! भीतर तो और भी अंधकार है। वहाँ तो शांति नहीं, केवल डर और उलझन है।”
ऋषि जी मुस्कराए, उन्होंने दीपक बुझाया और बोले — “अब देखो, प्रकाश चला गया, पर क्या तुम गए?”
नयन कुछ क्षण मौन रहा। उसने आँखें बंद की और महसूस किया कि अंधकार में भी कुछ है, जो सब देख रहा है। वह नयन नहीं था, न विचार, न भावनाएँ — बस एक मौन साक्षी। उस साक्षी का कोई नाम नहीं था, न आकार, पर उसकी उपस्थिति गहरी और शांति से भरी थी।
ऋषि अनिरुद्ध जी ने धीरे से कहा — “वह जो सबको देखता है, वही तेरा अंतःप्राज्ञ है। वह चेतना जो न प्रकाश से जुड़ी है, न अंधकार से — वही तेरा वास्तविक स्वरूप है। जब तू स्वयं को साक्षी के रूप में जान लेता है, तब तू मन से पार पहुँच जाता है।”
अब नयन के चेहरे पर एक शांत मुस्कान थी। उसने पहली बार अनुभव किया कि ध्यान कोई क्रिया नहीं, बल्कि एक अवस्था है। अब वह शांति को खोजता नहीं था, बल्कि स्वयं शांति बन गया था। यही था उसका अंतःप्राज्ञ का प्रथम अनुभव — जहाँ मौन बोलता है और आत्मा स्वयं को पहचानती है। अब नयन प्रतिदिन उस भीतर के अनुभव में डूब जाता था और हर क्षण उस गहन शांति का आनंद लेता था। उसे अब अंतःप्राज्ञ का सच्चा अर्थ समझ में आ गया।
✍️ योगेश गहतोड़ी “यश”




