
मैं गांधारी,
अंतस में समेटे दाह अपार,
होती रही विगलित,
प्रतिपल प्रतिछिन ।
अनुत्तरित प्रश्न ,
उठते हैं मन में अनेक।
अस्तित्व शेष हो कर भी,
क्या पाया मैंने?
क्या है कुछ ऐसा?
उपलब्धि मान जिसे,
मैं अपनी अन्तर-ज्वाला,
शीतल कर लूँ?
मरू की मरीचिका सी,
स्मृतियाँ रह-रह कर ,
चमक उठती हैं मन में।
ओर-छोर के बंधन से मुक्त,
व्यथा-कथा मेरी यह,
बढ़ती ही जाती है।
आज भी सजीव है दृश्य वह,
जब मैं,गांधार-राजकन्या ,
यौवन -भार से मदमाती,
सौंदर्य को सुंदर बनाती,
अपना राजकुंवर ,
ढूँढती फिर रही थी,
कल्पना उपवन में।
मैं रूप गर्विता ,
आत्ममुग्धा गांधारी।
मुझे क्या था ज्ञात,
कि निष्ठुर अज्ञात,
दबे पाँव क्रूर अहेरी सा,
बढ़ आया था मुझे,
अपने कुटिल पाश में जकड़ने,
भीष्म के रूप में।
हाँ,भीष्म आए थे।
हस्तिनापुर के गौरव ,
उसके संरक्षक,
उसके लिए अपने मन की,
समस्त कोमलता को ,
कठोरता से कुचल देने वाले।
भीषण देवव्रत,पितामह।
आए थे अपने दृष्टिहीन पौत्र के
जीवन के अंधकार को ,
मेरे रूप के आलोक से
जगमगाने।
विनम्रता से उन्होंने,
प्रयोजन प्रकटाया था।
लेकिन विनय के आवरण में ,
सायास छिपा शक्ति -दर्प भी,
स्पष्ट उभर आया था।
और गांधारनरेश,
विवश जनक मेरे,
अपमान गरल यह
चुपचाप पी गए थे।
मेरे सपने,मेरा राजकुंवर,
मेरा रूप -गर्व सब,
तिमिर में खो गए थे।
और मैं गांधार-राजकन्या,
अप्रतिम रूपसी गांधारी,
अंतस में समेटे अपार दाह,
कौरव-वधू हो गई थी।
विकल आक्रोश मेरा,
मुझे ही डस बैठा,
दृष्टिहीन पति का
मुख तक न देखूँगी।
संकल्प यह मेरा,
मुझे भी दृष्टिहीन कर बैठा।
मूंद लिए नेत्र विवेक ने भी मेरे,
रूप, रस भरा संसार
मेरे लिए पल भर में ,
पूरी तरह ओझल हो गया।
अहंकार मेरा हाहाकार बन ,
पछाड़ें खाने लगा।
निशब्द रूदन मेरा
मुझे ही डरपाने लगा।
कितना विद्रूप था,
परिहास यह नियति का।
अंधे पति का साथ निभाने को
स्वेच्छया दृष्टिवंचिता बनी
पतिव्रता मुझको
सब धन्य-धन्य कह उठे।
मैं देवी कहलाने लगी।
पूजी जाने लगी।
पाहन-पूजन की रीति यह
कितनी निठुर है।
पाषाण-मध्य बहती
व्यथा अंत:सलिला को ,
कोई न जान पाया।
और आज चिर अंतराल बाद,
कुरूक्षेत्र के श्मशान में
बिलखती,
मुझ अभागिनी माँ के
मन को कृष्ण ने टटोला है।
दिया है स्नेहभरा आदेश
दृष्टि खोलो माँ,देखो तो।
नहीं जानता क्या कृष्ण?
अब बचा क्या है देखने को?
अपनी संतान को लहुलुहान ,
निष्प्राण देखने का साहस
नहीं है मुझमें।
साहस?
क्या आज ही नहीं है?
कभी भी नहीं था शायद
तभी तो मैंने एक ही पराजय में
जीवन हार दिया।
अपने दायित्व से विमुख
पराजय को जय मान लिया।
मुख तक नहीं देखा,
अपनी संतानों का,
झरना मेरी ममता का
सूख गया था क्या?
कैसी आत्म प्रवंचना थी यह?
मुझ आत्म प्रवंचिता को,
किसी ने भी तो नहीं कहा ,
दृष्टि खोलो गांधारी
तुम्हारी स्नेहिल दृष्टि की
आकांक्षी है तुम्हारी संतति।
तुम्हारा आलंबन चाहिए इन्हें,
चाहिए ममत्व का मार्गदर्शन
जो केवल और केवल
तुम दे सकती हो इन्हें।
तब तुम कहाँ थे कृष्ण?
क्यों नहीं बोले तब ?
आंँखे खोलो माँ।
काश एक बार तो कहा होता
मेरे स्नेहिल निषेध,
धंसने न देते ,
मेरे पुत्रों को,
स्वार्थ-अहंकार की दलदल में,
शोणित के पारावार में।।
मैं जो आज दृष्टि फाड़े,
खोज रही हूँ चारों ओर।
लाशों के अंबार में,
पहचानना चाह रही हूँ,
अपने सुयोधन को,
दु:शासन को,
अपनी दु:श्शला के पति
जयद्रथ को,
और उस भीष्म को भी,
जिसने भर दिया था,
अनजाने ही,
विनाश का पारावार,
मेरे और समस्त ,
हस्तिनापुर के भविष्य में।
मैं ढूँढ रही हूँ
अपने अभिमन्यु को,
जिस निहत्थे अकेले का
वध किया था
मेरे महारथी पुत्रों ने।
और भ्राता शकुनि को,
जिसके भगिनी -प्रेम ने,
भर दिया मेरे सौभाग्य में,
अंधकार अमा का।
लिख दिया यह ,
रक्तरंजित अध्याय
घृणाऔर सर्वनाश का ।
बस,अब और नहीं,
दृष्टि धुंधला रही है।
अंतर का सारा ताप
बरसने लगा है मूसलाधार।
पर शीतलता का
कोई भी तो, कण नहीं है।
जो इस दाह से,
मुक्ति दे पाए मुझे।
बस अब एक आशा
अभिलाषा है यही मेरी
कुरूक्षेत्र की कलंकित धरा को
उजला करने को,
फिर जन्मे,
इतिहास नया।
उत्तरा के गर्भ में
पलता अंकुर,
शायद मेरी पीड़ा को
सार्थक कर दे।
क्षमाप्रार्थिनी हूँ मैं
मैं वंचिता,मैं गांधारी।
वीणा गुप्त
नई दिल्ली




