
हम तो है अंजान मुसाफिर,
बह जाते हैं धारे में।।
यथा शक्ति करते भक्ति,
नहीं विश्वास सहारे में।।
पक्का राही अनुभवी मैं,
स्वयं सफर तय करता।
है मुझको विश्वास एक दिन,
पहुँचूंगा किनारे में।।
इसकी उसकी चिंता पीछे,
अपने को मैं भूल गया।
अब छोड़ो मुझे समझाना,
सोचो अपने बारे में।।
चाहो तुम या नहीं चाहो,
नहीं चलता है अपना।
मिल जाते हैं कई शुभचिंतक,
यहाँ गली – गलियारे में।
सपनों का यहाँ क्या भरोसा,
बनते हैं ये शीशों से।।,
देखत देखते होते चूर है,
एक पल के इशारे में।।
‘सच्चिदानन्द’ नया नहीं तू,
पछताना अब व्यर्थ है।
देकर सबको मैंने उजाला,
जिया किया अंधियारे में।।
(पूर्णिकाकार :गोवर्धनसिंह फ़ौदार ‘सच्चिदानन्द’)
पता :मॉरीशस।




