
बेला हो गई है शाम की
मेघ घिरे श्वेत-श्याम हैं ।
दिवस भी अब ढल रहा
निशा का मन मचल रहा ।
खगकुल लौट रहे हैं निज नीड़ में
क्लांत जन दिख रहे हैं भीड़ में ।
कोई क्रय कर रहा है तरकारियॉं
कोई बच्चों के निमित्त ट्रॉफियॉं ।
दिवस निज दिप्ति खो रहा
निशा का अंधकार हो रहा ।
भानु छिप रहा तरु ओट में
शशि दिख रहा है व्योम में ।
बत्तियॉं आलयों में जल गई
घंटियॉं देवालयों में बज रही ।
शंख कर रहा मधुर निनाद है ।
रजनी की हो रही शुरुआत है ।
– कमला बिष्ट ‘कमल’
अल्मोड़ा, उत्तराखंड


