भारतीय त्योहार प्राकृतिक सामीप्य का अनूठा उदाहरण हैं फिर पटाखों से प्रदूषण और अश्लीलता क्यों
डॉ कर्नल आदि शंकर मिश्र ‘आदित्य’, ‘विद्यावाचस्पति’

यह सच है कि भारतीय संस्कृति में होली और दिवाली जैसे त्योहारों में पर्यावरण संरक्षण और प्रकृति का महत्व है, लेकिन रंगों और पटाखों के गैर-जिम्मेदार उपयोग से वे पर्यावरण को नुकसान भी पहुंचाते हैं। सिंथेटिक रंगों और पटाखों से रासायनिक और वायु प्रदूषण होता है, जबकि ध्वनि प्रदूषण और तरह तरह का प्लास्टिक आदि कचरा भी बढ़ता है। इसलिए, प्राकृतिक रंगों और पारंपरिक तरीकों से हमारे देश में भी पर्यावरण-अनुकूल बनाकर हर त्योहार मनाना जाना चाहिए।
आख़िर त्योहारों से पर्यावरण को नुकसान क्यों पंहुचाया जाता है?
पटाखों से निकलने वाले रसायन वायुमंडल में सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड जैसी जहरीली गैसें छोड़ते हैं, जो जलवायु परिवर्तन का कारण बनती हैं। इनसे ध्वनि प्रदूषण भी होता है, जो इंसानों और बेजुबान जानवरों के लिए हानिकारक है। यह भी पाया जाता है कि अक्सर दीपावली के बाद दो चार दिन तक वायुमंडल में गर्मी बढ़ जाती है जो इसी प्रदूषण की वजह से होता है।
इसी तरह होली के त्योहार के समय सिंथेटिक रंगों का गलत उपयोग किया जाता है जिनमें मौजूद रसायन मिट्टी और जल स्रोतों को प्रदूषित करते हैं और त्वचा संबंधी समस्या पैदा करते हैं।साथ ही होली जैसे त्योहारों में पानी का अत्यधिक उपयोग पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है, खासकर पानी की कमी वाले क्षेत्रों में तो यह पानी की बरबादी ही है।
प्लास्टिक के गुब्बारों, वाटर-गनों और सजावटी सामानों से प्लास्टिक कचरा पैदा होता है, जो पर्यावरण को लंबे समय तक नुकसान पहुंचाता है।
इसलिये आइये पर्यावरण-अनुकूल त्योहार मनाने के उपाय अपनायें और
सिंथेटिक रंगों के बजाय, फूलों और जड़ी-बूटियों से बने प्राकृतिक रंगों का उपयोग करें।
दीपावली के मौक़े पर पटाखों का बहिष्कार करें और पटाखे जलाना भी बंद करें। दीये और मोमबत्तियों जैसे पारंपरिक प्रकाश स्रोतों का उपयोग करें।
पानी का उपयोग कम से कम करें या पानी के बिना मनाए जाने वाले पारंपरिक तरीकों को अपनाएं।
त्योहार के बाद उत्पन्न कचरे को सही तरीके से निपटाया जाए और यदि संभव हो, तो खाद बनाने के लिए उपयोग किया जाए।
इस प्रकार हम अपनी भारतीय त्योहारों की सांस्कृतिक धरोहर को संजोये रख सकते हैं साथ ही पर्यावरण का बखूबी संरक्षण कर सकते हैं।
डॉ कर्नल आदि शंकर मिश्र
‘आदित्य’, ‘विद्यावाचस्पति’
लखनऊ




