
श्लोक:
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।
— श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 2, श्लोक 64
भावार्थ : अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है, यही स्थितिप्रज्ञ है।
यह श्लोक (भगवद्गीता अध्याय 2, श्लोक 64) में वर्णित है। भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में अर्जुन को जीवन के समत्व का रहस्य बताते हैं। वे समझाते हैं कि मनुष्य का वास्तविक सुख विषयों के त्याग में नहीं, बल्कि उनसे मुक्त होकर, आत्मसंयम में स्थित रहने में है। जब साधक राग (आकर्षण) और द्वेष (विकर्षण) से मुक्त होकर, आत्मवश इन्द्रियों से विषयों में विचरण करता है, तब उसका अन्तःकरण प्रसन्न हो जाता है। यही “स्थितप्रज्ञता” की प्रथम झलक है, जहाँ कर्म होते हैं, पर आसक्ति नहीं; अनुभव होता है, पर विक्षेप नहीं होता है।
*१. राग (आकर्षण):*
राग का अर्थ किसी विषय, व्यक्ति या परिस्थिति के प्रति आकर्षण या मोह है। यह मन की प्रवृत्ति है जो बाह्य सुख की खोज में बहती है। राग से उत्पन्न आसक्ति मन को बाँध देती है और जब वस्तु या व्यक्ति प्राप्त नहीं होता, तब दु:ख का जन्म होता है। साधक का पहला प्रयास राग को पहचानना है, क्योंकि राग ही बंधन की जड़ है।
*२. द्वेष (विकर्षण):*
द्वेष, राग का दूसरा पहलू है जो किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थिति से विरक्ति या घृणा का भाव प्रगट करता है। यह भी मन की ही एक वृत्ति है जो विरोध और प्रतिकार की भावना उत्पन्न करती है। जहाँ राग मन को खींचता है, वहीं द्वेष मन को दूर धकेलता है। दोनों ही अवस्थाएँ मन को अस्थिर करती हैं। जब साधक राग और द्वेष दोनों से मुक्त होता है, तभी मन संतुलित हो पाता है।
*३. वियुक्तैः (वियोगी होकर):*
वियोग का अर्थ है — भीतर से अलग रहना, पर बाहर से सम्मिलित होना। यह त्याग नहीं, निरासक्ति है। जैसे कमल का पत्ता जल में रहकर भी भीगता नहीं, वैसे ही वियुक्त साधक संसार में रहकर भी संसार में नहीं होता। उसका मन वस्तुओं में नहीं, आत्मा में स्थित होता है। यही योग की सच्ची दशा है।
*४. विषयान् (विषयों में):*
विषय पाँच हैं — रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श। ये इन्द्रियों के अनुभव के क्षेत्र हैं। संसार में रहते हुए इनसे पूर्ण वियोग संभव नहीं, पर आसक्ति से मुक्ति संभव है। साधक जब विषयों का अनुभव करता है, पर उनमें खोता नहीं, तभी वह स्थिरचित्त रहता है। विषय तब बाधा नहीं, साधना बन जाते हैं।
*५. इन्द्रियैः (इन्द्रियों द्वारा):*
इन्द्रियाँ आत्मा के उपकरण हैं, पर सामान्य मनुष्य उन्हें स्वामी बना बैठता है। जब इन्द्रियाँ विषयों के पीछे भागती हैं, तब मन दास बन जाता है। साधक का मार्ग उल्टा है, वह इन्द्रियों को आत्मा के अधीन रखता है। वे तब केवल अनुभव का माध्यम रहती हैं, भोग का साधन नहीं, यही इन्द्रिय-निग्रह है।
*६. चरन् (विचरण करता हुआ):*
चरन् का अर्थ है — कर्म करते हुए, संसार में गति करते हुए। यह श्लोक बताता है कि योगी संसार से भागता नहीं, वह संसार में रहकर भी स्थित रहता है। उसका विचरण निष्काम होता है, क्योंकि उसके भीतर किसी परिणाम की आसक्ति नहीं। वह कर्म करता है, पर ‘कर्ता’ होने का अहंकार नहीं रखता।
*७. आत्मवश्यैः (आत्मवश होकर):*
आत्मवश्य का अर्थ है — आत्मा के नियंत्रण में रहना। यह तभी संभव है जब मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ आत्मा के अनुशासन में हों। आत्मवश्य व्यक्ति अपने भीतर के स्वामी को पहचान चुका होता है। उसका प्रत्येक निर्णय विवेक से उत्पन्न होता है, वासना से नहीं। यही आत्मसंयम का सार है।
*८. विधेयात्मा (संयमी साधक):*
विधेयात्मा वह है जो स्वयं पर शासन करना जानता है। उसके भीतर शांति का शासन है, न कि वासना का शासन। वह अपनी इच्छाओं को धर्म और विवेक के अधीन रखता है। उसका मन न परिस्थितियों से विचलित होता है, न परिणामों से। यह आत्मानुशासन ही उसे स्थितप्रज्ञता की ओर ले जाता है।
*९. प्रसादम् (शांति और प्रसन्नता):*
प्रसाद कोई बाहरी दान नहीं, बल्कि भीतर की स्थिति है। यह तब उत्पन्न होता है जब मन स्वच्छ और शांत हो। जैसे अशांत जल में चंद्रमा का प्रतिबिंब विकृत होता है, वैसे ही अशांत मन में आत्मा का प्रकाश स्पष्ट नहीं दिखता। जब मन राग-द्वेष से मुक्त होकर शांत होता है, तब भीतर आनंद का प्रसाद स्वयमेव प्रकट होता है।
*१०. अधिगच्छति (प्राप्त करता है):*
यह शब्द साधना की पूर्णता को दर्शाता है — वह प्राप्ति जो प्रयास का परिणाम नहीं, बल्कि आत्म-स्थिति का स्वाभाविक फल है। यह कोई “प्राप्त करने योग्य वस्तु” नहीं, बल्कि “पहचाने जाने योग्य स्थिति” है। साधक प्रसाद को पाता नहीं, बल्कि पहचानता है, क्योंकि वह सदैव भीतर विद्यमान था।
यह श्लोक बताता है कि आत्मसंयम ही प्रसन्नता का मार्ग है। राग-द्वेष से रहित, आत्मवश इन्द्रियों से कर्म करने वाला व्यक्ति बाह्य जगत में रहकर भी भीतर स्थित रहता है। उसका मन प्रसन्न होता है, क्योंकि उसने अपने सुख का स्रोत भीतर खोज लिया है। यही योग की सार्थकता और स्थितप्रज्ञता की पहचान संसार में रहते हुए भी संसार से परे रहना है।
ऋग्वेद में “ऋत” को ब्रह्म की गति कहा गया है और वह सदैव सत्य और संतुलित रहता है। यह “ऋत” ही स्थितप्राज्ञ की आत्मगत अवस्था है। यजुर्वेद में कहा गया — *“धर्मस्य मूलं संतुलनम्”,* अर्थात् धर्म का मूल है समत्व। सामवेद स्थित मन को मधुर संगीत के समान बताता है, जो आत्मा की लय में गूँजता है। अथर्ववेद में कहा गया कि *“शान्तचित्त”* ही ब्रह्म का पात्र बनता है। वेदों ने स्थितप्रज्ञता को केवल साधना का लक्ष्य नहीं, बल्कि जीवन की मूल धारा माना है।
कठोपनिषद कहता है — *“यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः, अथ मर्त्योऽमृतो भवति।”* जब हृदय की समस्त कामनाएँ शांत हो जाती हैं, तब मनुष्य अमरत्व को प्राप्त करता है। ईशोपनिषद कहता है — *“तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा”* त्याग में ही भोग का रहस्य है। मुण्डकोपनिषद इसे और गहराई से बताता है कि आत्मसंयम और श्रद्धा ही ब्रह्मविज्ञान के द्वार हैं। उपनिषदों में स्थितप्रज्ञ व्यक्ति जगत में रहकर भी आत्मा में स्थित होता है और उसका कर्म साक्षीभाव से संपन्न होता है।
मानव जीवन में स्थितप्राज्ञता का अर्थ है — हर परिस्थिति में संतुलित रहना। सफलता मिलने पर अहंकार न हो, और असफलता आने पर निराशा न हो। जब व्यक्ति राग और द्वेष से मुक्त होकर कर्म करता है, तो उसका प्रत्येक कार्य सहजता और सच्चाई से होता है। इन्द्रिय संयम का अर्थ दमन नहीं, बल्कि दिशा देना है — जैसे घोड़ा लगाम से नहीं, साधक के विवेक से चलता है। आत्मवश्यता का अभ्यास जीवन के हर क्षेत्र में शांति लाता है।
स्थितप्राज्ञ व्यक्ति में न आग्रह होता है, न प्रतिकार। उसका मन साक्षीभाव में स्थित रहता है। वह घटनाओं का अनुभव करता है, पर उनसे प्रभावित नहीं होता। उसके भीतर करुणा है, पर मोह नहीं; विवेक है, पर कठोरता नहीं। उसकी वाणी मधुर, निर्णय स्थिर और दृष्टि समभावपूर्ण होती है। यही प्रसाद की अवस्था है, जब भीतर का संतुलन बाहर की हर परिस्थिति को प्रकाशित करता है।
सामाजिक जीवन में स्थितप्राज्ञ व्यक्ति नेतृत्व का आदर्श है। वह न किसी के प्रति पक्षपाती होता है, न किसी से द्वेष रखता है। उसकी दृष्टि न्यायपूर्ण और कर्म धर्मनिष्ठ होता है। परिवार में वह स्नेहपूर्वक अनुशासन रखता है, कार्यस्थल पर विनम्रता के साथ दृढ़ता दिखाता है और समाज में शांति का दीपक बनता है। संयम उसके लिए बंधन नहीं, बल्कि स्वतंत्रता का मार्ग है।
योग का सार है — “चित्तवृत्ति निरोध।” जब मन की वृत्तियाँ शांत होती हैं, तब आत्मा का प्रकाश प्रकट होता है। स्थितप्राज्ञ व्यक्ति ध्यानयोग का साकार रूप है। वह कर्मयोग में लीन रहते हुए भी भीतर ध्यानस्थ रहता है। उसके कर्म निष्काम हैं, क्योंकि वह परिणाम से बंधा नहीं। श्रीकृष्ण कहते हैं — *“योगः कर्मसु कौशलम्।”* स्थितप्राज्ञ के कर्म आत्मसंयम और शांति से पूर्ण होते हैं।
आज के युग में स्थितप्राज्ञता “माइंडफुलनेस” और “इमोशनल इंटेलिजेंस” के रूप में पहचानी जा रही है। जब व्यक्ति सजग होकर अपने विचारों और भावनाओं को देखता है, बिना उनसे जुड़ने के, तब वह मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है। गीता का यह श्लोक आधुनिक तनाव, ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा से ग्रस्त मनुष्य के लिए अत्यंत उपयोगी है — शांति भीतर से उत्पन्न होती है, जब हम राग-द्वेष से मुक्त होकर कर्म करते हैं।
प्रसाद केवल प्रसन्नता नहीं, बल्कि आत्म-शांति की अवस्था है। जब मन निर्मल हो जाता है, तब आत्मा का प्रकाश उसमें स्पष्ट रूप से झलकता है। साधक अब किसी बाहरी वस्तु से आनंद नहीं चाहता, क्योंकि वह जानता है कि आनंद उसके भीतर ही है। यही अंतःप्रसन्नता स्थायी है, जो किसी घटना या व्यक्ति पर निर्भर नहीं।
वेद, उपनिषद और गीता इन तीनों का सूत्र है : *“समत्वं योग उच्यते।”* जीवन का सर्वोच्च आनंद त्याग में नहीं, बल्कि आत्मसंयम में है। स्थितप्रज्ञ व्यक्ति वही है जो कर्म करता है, पर उसमें आसक्त नहीं होता; विषयों में रहता है, पर आत्मा में स्थित है। यही गीता का अद्वैत संदेश है — भीतर का मन शांत हो तो बाहरी संसार भी प्रसन्न दिखता है। स्थितप्राज्ञता ही धर्म, योग और जीवन इन तीनों का संगम है, मानवता का सर्वोच्च रूप और आत्मशांति का सच्चा द्वार है।
✍️ योगेश गहतोड़ी “यश”




