आलेख

भावपल्लवन

योगेश गहतोड़ी "यश"

गद्य सृजन

श्लोक:-
“ते हस्तेन प्रसृतं गृह्णन्ति यस्यैव भूषणं तस्य भुञ्जते।”
– महाभारत शांति पर्व (अध्याय/श्लोक ,159/21)
भावार्थ: जो अपने हाथों से परिश्रम करता है, वही जीवन के सुख का अधिकारी है।

महाभारत के शांति पर्व का यह श्लोक धर्म और कर्म के गहरे संबंध को प्रकट करता है। भीष्म पितामह ने यह उपदेश उस समय दिया जब युधिष्ठिर धर्म के सार को जानना चाहते थे। उन्होंने समझाया कि सच्चा धर्म पूजा या दान में नहीं, बल्कि कर्म और परिश्रम में निहित है। श्रम ही सृष्टि की गति का मूल है, क्योंकि श्रम जीवन को प्रवाह देता है और कर्महीनता उसे ठहराव में बाँध देती है। इसीलिए शास्त्रों ने श्रम को यज्ञ और कर्म को धर्म कहा है।

यह श्लोक सिखाता है कि जीवन का सच्चा सुख केवल अपने परिश्रम से ही मिलता है, न कि मुफ्तखोरी से। मुफ्तखोरी, पंचपातक में चौथा पातक, केवल आर्थिक दोष नहीं बल्कि मानसिक और नैतिक पतन का प्रतीक है। जो दूसरों के श्रम से सुख भोगता है, वह आत्मबल और आत्मसम्मान खो देता है। भीष्म पितामह ने बताया कि जीवन का सौंदर्य श्रम में है, क्योंकि वही आत्मनिर्भरता, सम्मान और धर्म का आधार है। अतः यह श्लोक हमें प्रेरित करता है कि हम श्रम को अपना भूषण बनाएं, क्योंकि परिश्रम ही जीवन का सच्चा आभूषण है।

*“ते हस्तेन प्रसृतं गृह्णन्ति”* — अर्थात वही व्यक्ति अधिकारपूर्वक भोग करता है, जो अपने हाथों से श्रम करता है। यहाँ ‘हस्त’ परिश्रम का और ‘प्रसृतं’ प्रयास की भावना का प्रतीक है। अर्थात सुख, सम्मान और भोग का अधिकार केवल उसी को है, जिसने अपने कर्म से अर्जित किया है। जो व्यक्ति दूसरों के श्रम का उपभोग करता है, वह वास्तव में मुफ्तखोरी के पातक में गिरता है। ऐसा जीवन आत्मसम्मान को नष्ट करता है और समाज में अन्याय का बीज बोता है। इस दृष्टि से यह श्लोक “मुफ्तखोरी” के पातक का आध्यात्मिक प्रतिरोध है।

*“यस्यैव भूषणं तस्य भुञ्जते”* — इसका आशय यह है कि कर्म ही मनुष्य का भूषण है। जिसने कर्म को अपने गले का हार बनाया, वह समाज का श्रृंगार बन जाता है। जो श्रम करता है, वही सच्चा सुंदर है, क्योंकि उसका सौंदर्य ईमानदारी से जन्मा होता है। मुफ्तखोरी के आभूषण झूठे होते हैं, जो चमकते हैं पर भीतर से खोखले होते हैं। श्रम का भूषण ही शाश्वत है, क्योंकि वह भीतर से उज्ज्वल करता है।

वेदों में कहा गया है — *“कर्मणा देवानां स्तोमं जुहोमि,”* अर्थात श्रम ही देवताओं की सच्ची आराधना है। परिश्रम से अर्जित वस्तु अमृत के समान पवित्र और जीवनदायी होती है, जबकि बिना श्रम के प्राप्त सुख विष के समान विनाशकारी होता है। मुफ्तखोर व्यक्ति यज्ञ का सहभागी नहीं, बल्कि उसका विघ्नकर्ता बन जाता है, क्योंकि उसका जीवन देने की जगह लेने की वृत्ति से भरा होता है। इसलिए भीष्म पितामह का यह उपदेश केवल व्यक्तिगत मर्यादा नहीं, बल्कि सामाजिक धर्म का आधार है क्योंकि जब समाज में श्रम का सम्मान होता है, तभी न्याय, समरसता और प्रगति का मार्ग खुलता है।

श्रम में त्याग और तप, दोनों का संगम होता है, यही तपस्विता मनुष्य की आत्मा को ऊँचा उठाती है। इसके विपरीत, मुफ्तखोरी मनुष्य को निर्भर, छलपूर्ण और आत्महीन बना देती है। ऐसा व्यक्ति न स्वयं का उत्थान कर पाता है और न समाज का। इसीलिए भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा कि सच्ची विजय रणभूमि में नहीं, श्रमभूमि में है। जो श्रम को धर्म बनाता है, वह जीवन को साधना बना लेता है; और जो श्रम से भागता है, वह याचक बनकर जीता है। इस प्रकार यह श्लोक आत्मनिर्भरता, आत्मगौरव और कर्मशीलता का शाश्वत संदेश देता है।

गीता और महाभारत दोनों ही एक ही सत्य सिखाते हैं — कर्म ही धर्म है। गीता में लिखा है,*“कर्मण्येवाधिकारस्ते,”* और महाभारत के अनुसार— *“ते हस्तेन प्रसृतं गृह्णन्ति।”* कर्म के बिना भोग अधर्म है, और कर्म से अर्जित भोग ही धर्म है। यही अंतर मानव और परजीवी जीवन में है। कर्मशील व्यक्ति यज्ञकर्ता है, जबकि मुफ्तखोर व्यक्ति यज्ञ का भक्षक है। कर्म से ही आत्मा निर्मल होती है।

आज के युग में यह श्लोक विशेष रूप से प्रासंगिक है। आधुनिक समाज में जब लोग त्वरित लाभ, कृपा या अनुचित मार्गों से सुख प्राप्त करना चाहते हैं, तब यह श्लोक धर्म का दीपक बनकर मार्ग दिखाता है। आत्मनिर्भरता, उद्यमशीलता और परिश्रम की संस्कृति ही राष्ट्र को उठाती है। जो समाज अपने श्रमिकों का सम्मान करता है, वही सच्चे अर्थों में सभ्य होता है।

अतः यह श्लोक केवल एक नीति नहीं, एक तप-सूत्र है, जो अपने हाथों से परिश्रम करता है, वही जीवन के सुख का अधिकारी है। मुफ्तखोरी आत्मा का अंधकार और परिश्रम उसका प्रकाश है। जो अपने श्रम को भूषण बनाता है, वही वास्तव में पातक से मुक्त होता है। कर्म ही कीर्ति है, श्रम ही सौंदर्य है और परिश्रम ही जीवन का सच्चा आभूषण है।

✍️ योगेश गहतोड़ी “यश”

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Content is protected !!