
आज था स्वर्णिम सुखद विहान ।
राम आगमन का मिला संदेश ,
हुआ सब शुभ मंगल परिवेश।
भरत मन हर्षित, पुलक-उन्मेष ।
समाप्त राम-रावण संग्राम।।
विजयश्री का वरण कर राम।
लखनऔर सिय सहित प्रभु ,
आ रहे पावन अवध धाम।।
सुन सेवक से यह समाचार।
आतुरता का सागर अपार।।
भरा भाव से हृदय भरत का
उद्वेलित मन था बारंबार।।
नांदीग्राम की पर्णकुटीर में,
तापस-भरत कर रहे निबाह।।
निहार रहे चौदह वर्षों से,
लखन,सिया,श्रीराम की राह।।
मंगल समाचार जब पाया।
अवध में नवजीवन लहराया।।
प्रजाजनों का उल्लास अपार।।
महलों ने किया नवल श्रृंगार।।
होते घर- घर मंगलाचार।
तोरण सजे,बंँधी वंदनवार
उत्साह भरा था कण-कण में।
बही मुखरित उत्सव की धार।
भरत मन अब भी था शंकित,
ग्लानि भाव से भरे अपरिमित,
सह क्रूर नियति का कुलिश वार,
ले जननी के कुकर्म का भार।
कौन भुला सके दिवस वह,
राम गए वन,बरस चौदह।
कैसे भरत ने समय बिताया।
पल भर को भी चैन न पाया।।
वैभव त्याग,कर कुटी में निवास।
भू-शयन,कर साधना उपवास।
बने भरत विषाद-प्रतिमा साकार।
देते हर पल स्वयं को धिक्कार।।
मन उनका निष्पाप निश्छल।
भ्रातृस्नेह से युक्त अविरल।।
छलक-छलक जाता पल-पल
हो जाते युग नयन सजल।
मैं सबके दुःखों का कारण,
पछतावा न मन से हटता था।
माँ का कुकर्म,अनर्थ उन्हें,
शत सर्पदंश बन डंसता था।
अतीत की स्मृतियांँ उर में।
रह-रह कसक रहीं थीं।।
आंँखें सावन मेघ बनी थीं,
हर पल बरस रही थीं।।
हृदय तप्त था मरूथल सा,
शीतलता का नाम नहीं था।।
क्रम विचारों का था अनवरत,
गति को तनिक विराम नहीं था।
अनुज सहित ननिहाल में थे,
जब अवध से संदेशा आया।।
मंत्री और गुरूजनों ने उनको,
तत्काल अयोध्या था बुलवाया।।
छिड़ा मन में संशय घमासान।
सानुज किया था अवध प्रस्थान।।
नहीं था उन्हें इस बात का भान ,
हो चुका पिताश्री का अवसान।।
कंपित हृदय ले दोनों भाई
वायु वेग से अवधपुर आए।।
देख अमंगल,स्तब्ध परिवेश ,
उनके प्राण बहुत डरपाए।।
हर दृष्टि में प्रश्र भरे थे।
हर दृष्टि धिक्कार भरी थी।।
तिरस्कार के प्रखर-शरों ने ,
भरत चेतना सकल हरी थी।।
शिथिल पगों से जब दोनों ने
राज महलों में किया प्रवेश ।
हतबुद्धि हो गए देखकर ,
माताओं का अमंगल वेश।
पसरी चुप्पी बता रही थी,
घटी कोई अप्रिय कहानी।
समझ न पाए वे बिल्कुल भी,
नीरवता की मुखरित बानी।
ज्ञात होते ही बातें सारी,
वे लज्जा-जड़ हो आए थे।
कोटि-कोटि धिक्कार उन्होंने,
फिर खुद पर बरसाए थे।
मां का किया अनर्थ उन्हें,
दृष्टि में स्वयं की गिरा गया।
प्राण नहीं थे तन में अब,
कलंकित मुख भी हो गया।
वचन मान गुरुजनों का फिर,
पिता का सब संस्कार किया।
लाऊंँगा भ्राता को वापस,
मन में संकल्प धार लिया।
हो पाए क्या वे पूर्णकाम?
चित्रकूट को किया प्रयाण।
लाख मनाया, पर न लौटे,
लखन,जानकी औ’ श्रीराम।
राम ने किया उचित सत्कार
दिया अनुज को नेह अपार।
भरत ने की अनुनय, मनुहार
राम पर पितृ -वचन का भार।
लौटे सर्वस्व खो,हताश हो।
चरण -पादुका शीश पर धार।
कितना कठिन समय था यह।
था कितना दुर्वह यह भार।।
आज आया जब मुक्ति का क्षण।
कातर क्यों है भरत का मन?
नभ के कला क्षीण विधु सा।
निष्प्रभ हुआ उनका आनन।।
क्यों भरत के हर्ष -उल्लास पर,
बरस रहा अमावस का अँधेरा।
संशय और दुविधा सागर ने,
क्यों उनके मन को था घेरा।
कल सूर्योदय होते ही अगर,
पाए नहीं श्रीराम के दर्शन।
किसे दिखाऊंँगा मुंँह अपना,
मांँ धरणी देना मुझे शरण।
उन्मन सी बीती विभावरी,
भोर आई उत्साह भरी।
होगा दुःखों का अंत आज,
मन में सुखद आस भरी।
वेला थी उजली भोर की पावन ।
विहगों का कल गान सुहावन ।
शीतल मन्द बहती वतास थी
चहुं दिसि फूलों की सुवास थी।
हरित दूब पर ढुलक तुहिन कण।
रवि- किरणों का स्निग्ध परस पा।।
हीरक,माणिक और मुक्ता बन।। झिल-मिल करता था उपवन।
तभी राम का हुआ पदार्पण,
विह्वल मन औ’ पुलकित तन ले,
किए भरत ने राम के दर्शन।
अनुज लखन और सिया साथ में
शोभित हनुमन,ले स्मित आनन।
प्रणत हुए राम चरणों में ,
बहे अश्रु अविरल,थे मौन वचन।
उठा गले से उन्हें लगाया,
प्रभु ने किया स्नेह-आलिंगन।
पुलकित हुईं सकल दिशाएंँ,
अब न शेष कोई संताप था।
अनुपम ,दिव्य, पुण्य,भाव भरा
यह श्रीराम- भरत मिलाप था।
बीता सुखद दिवस पल भर में,
रंग ढुलकाती संध्या आई।
सूरज की कोमल किरणों ने
बेमन से ली ,आज विदाई।
अंधियारे का आंँचल ओढ़े
आज निशा इकली ही आई।
तारावलियांँ और शशिमंडल
कुछ भी साथ नहीं वह लाई।
रात अमावस की काली थी,
पर धरती पर फैला प्रकाश था।
अवध पुरी के घर-घर में छाया,
उत्सव का अमित उल्लास था।
अनगिन जगमग घृत दीपों ने,
नभ तारों की छवि लूटी थी।
आज अवध के हर आंँगन में,
आभा की निर्झरी फूटी थी।
आलोकित थीं दसों दिशाएंँ,
झूम रहा था कोना-कोना।
बही प्रमुदित सरयू जलधारा,
था सब कितना मधुर सलोना।
राम लौट अवध में आए,
इससे बढ़ कर हर्ष कोई ना।
मग्नमना माताओं ने कर दी,
मणि-मुक्ता की झोली खाली।
आई मंगल मयी दीवाली।
अवध में लौटे राजा श्रीराम
दृश्य यह सुभग,नयनाभिराम।
प्रतीक्षा पूरी हुई भरत की,
संशयों ने पाया चिर विराम।।
अवध में आए अब श्रीराम।।
वीणा गुप्त
नई दिल्ली




