साहित्य

बुलबुले सा जीवन और पल का भी पता नहीं है

एस के कपूर "श्री हंस"

1
न जाने फूल सा क्यों खिलता नहीं है मन।
न जाने हवा सा उड़ता क्यों नहीं है मन।।
क्यों मन रहता एकअनजान डर से डरा हुआ।
न जाने एक दूजे से घुलता क्यों नहीं है मन।।
2
प्यार से किसीको गले लगाए बरस बीत गए हैं।
यों लगता है सब प्रेम के घड़े ही रीत गए हैं ।।
ईर्ष्या से ही तकता है मानव एक दूजे को।
यों लगता वस्त्र हरजन के घृणा से भीग गए हैं।।
3
सहन शक्ति विवेक लुप्त प्रायःही हो गए हैं।
संवेदना विश्वास भी सुप्त प्रायःही हो गए हैं।।
आचरण आवरण अति आधुनिक हैं दिखते।
मधुर व्यवहार सहयोग गुप्त प्रायःही हो गए हैं।
4
बुलबुले सा जीवन एक पल का पता नहीं है।
आचार विचार रखो शुद्ध कल का पता नहीं है।।
आज और अभी बदलो जीवन की दिशा-दशा।
किस ओर बहेगा यह जीवन जल पता नहीं है।।

रचयिता।।एस के कपूर “श्री हंस”
बरेली।।
©. @. skkapoor
सर्वाधिकार सुरक्षित

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