
देेहरियों के पार..
नील गगन की छांव में,
हरीतिमा की गोद में,मैं सिमटी खड़ी हूं
एक वृक्ष का अवलम्ब लेकर
सदियों से प्रतीक्षारत
अपने चितचोर की तलाश में।
अपलक देखती हूं मैं आंखें बिछाये,
और सुन रही हूं पदचाप की आहटों का शोर,
ज़माने गुज़र गये हैं उसके आने की चाह में;
एक प्यासी नदी, रसतिक्त भी है जो,
की लुप्त हो चुकी अमृत-सरीखी
एक रसधार बन चुकी हूं मैं;
वह आयेगा ज़रूर, इतना सा ख्वाब है,
इतने समय के बाद भी मेरी आंखों में ताप है,
मन को न रीता कर सका विगत
पतझड़ों का वार;
वह आयेगा ज़रूर हवाओं के वेग से,
इसलिये खड़ी हूं मैं देहरियों के पार।
कापीराइट@ राकेश चन्द्रा



