
लोकमन का पात्र वह धुनिया,प्रतिदिन गाँव से चलता,वन के रास्ते से गुजरता,शहर जाकर अपनी आजीविका करता और पुनः दिन ढलने से पहिले संध्या तक वापस बच्चों में आ जाता था। प्रभु की इच्छा,उस दिन वह शहर में अपने धंधे पानी में कुछ ज्यादा ही व्यस्त हो गया,लौटते समय धुंधलिका घिर रही थी, वह वन मार्ग में फँसा किसी अनहोनी की आशंका से ग्रस्त ही था कि मार्ग में एक नन्हा सा किन्तु वयस्क हो रहा सिंह शावक मिल ही गया। उसका डरना,भयभीत होना स्वाभाविक ही था। इधर माँ की वर्जना को तोड़ता,टहलने निकला सिंह शावक भी पहली बार तीर कमान वाला शिकारी को देख भयभीत हो गया, किन्तु उसने धैर्य को नहीं छोडा़। उसने माँ से इन्सानी फितरत के बारे में सुन रखा था कि इन्सान खुशामद पसंद होता है,खुशामद पसंदगी उसकी कमजोरी होती है।उसने विवेक बुद्धि लगाकर रास्ते में मिले उस धुनिया से अत्यन्त विनम्रता से कहा कि-“काँधे धनुष हाथ में बाना,कहाँ चले दिल्ली सुलताना।” धुनिया चालाक था वह समझ गया कि, “यथा एन्ने तथा ओन्ने, एन्ने ओन्ने तथैव च”,यानी दोनों तरफ मामला बराबर है, बचने की पूरी उम्मीद है। उसने भी पाशा फेंक कर कहा कि-” वन के राजा हैं, बहुत ही ज्ञानी, बडो़ं की शान बडो़ं ने ही जानी।” फिर दोनों ही परस्पर सम्मान दर्शित करते,अपने अपने भय को मन में ही दबाये, अपने अपने मार्ग पर अग्रसर हो लिये।
✍️चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा “अकिंचन”,गोरखपुर।
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