साहित्य

दुशासन का वध……………..

आकाश शर्मा आज़ाद

इंद्रप्रस्थ के मायावी महल मे,,
पांडवों के राजसूय यज्ञ मे,,
धर्मराज युधिष्ठिर के निमंत्रण पर,,
दुर्योधन के संग सभी कौरवो का आगमन हुआ,,
मयदानव द्वारा निर्मित,इंद्रप्रस्थ के राजमहल की,,
वास्तु कला को देखकर,,
सभी अतिथि आश्चर्यचकित और अचंभित हुए,,
दुर्योधन भी इंद्रप्रस्थ के राजमहल की,,
वास्तु कला को समझ न सका
दुर्योधन इंद्रप्रस्थ के राजमहल में चलते-चलते,
भूमि समझकर राजमहल के,,
एक मायावी तालाब में जा गिरा,,
महारानी द्रौपदी ने, दुर्योधन को,,
मायावी तालाब में गिरा हुआ देखकर,,
दुर्योधन से” आंधे का पुत्र अंधा,,
ये हंसते हुए कहा दुर्योधन अपना
ऐसा अपमान सह न सका,,
दुर्योधन क्रोध में लाल होकर
इंद्रप्रस्थ से लौट आया हस्तिनापुर,,
अपने हृदय में प्रतिशोध की अग्नि लिए,,
दुर्योधन के अहंकार का,
इंद्रप्रस्थ में महारानी द्रौपदी ने,
बड़ा अपमान किया !!
द्रौपदी से अपने अपमान के प्रतिशोध के लिए
दुर्योधन ने, मामा श्री शकुनि के साथ मिलकर,
एक महा भयानक षड्यंत्र की रचना की,,
दुर्योधन ने धर्मराज युधिष्ठिर को,
अपने सभी भ्राताओं सहित
अतिथि रूप में, हस्तिनापुर में पधार कर,
चौसर खेलने का निमंत्रण दिया !!
और दुर्योधन का निमंत्रण स्वीकार कर
धर्मराज युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर पहुंचकर,
अपने हाथ की लकीरों में,
अपना दुर्भाग्य स्वयं लिख दिया !!
आरंभ हुआ चौसर का खेल”
दुर्योधन ने कहा मेरी तरफ से,
मामा श्री, डालेंगे पासे !
मामा श्री, शकुनी खेलेंगे!
मेरी तरफ से,
चौसर का खेल,
थे, शंकुनी के पासे विशेष
शकुनी के पिता गंधार के राजा
सुबल की अस्थियों से,
निर्मित थे,वो पासे,
मामा शकुनी के पासौं में था
शकुनी के पिता का आशीष,
कहना मानते थे
वो,,शकुंनी का आदेश
चौसर के खेल मे एक-एक करके हारते गए,
धर्मराज महाराज युधिष्ठिर,
अपने राज्य, अपने भ्राताओं को
अपना सम्मान भी गवा कर बैठ गए,
पांचो पांडव अब दुर्योधन के दास कर रह गए,
धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा अब समाप्त करो,
चौसर का खेल मैं अपना सब कुछ हार चुका हूं
अब कुछ नहीं रह गया है मेरे पास
दाव पर लगाने को, सुनकर युधिष्ठिर की बातों को,
दुर्योधन कहने लगा अभी आप हारें नहीं है सम्राट,
अभी आपके पास, महारानी द्रौपदी है,
दाव पर लगाने को,, द्रौपदी को दाव लगाकर,
आप विजयी हो सकते हैं, आप अपना खोया हुआ
मान सम्मान पुनः प्राप्त कर सकते हैं,,
ऐसा अनर्थ सुनकर, महामंत्री विदुर ने,
युधिष्ठिर को समझाया, ऐसा महा पाप न करो पुत्र
महाराज धृतराष्ट्र से भी विनती की, महामंत्री ने,
ये,विनाश का खेल रोकने की,पर धृतराष्ट्र ने कहा
ये, तो, एक खेल मात्र है, इसमें कैसा विनाश महामंत्री,
युधिष्ठिर की बुद्धि पर भी राहु बैठा हुआ था,,
युधिष्ठिर ने, अपनी धर्मपत्नी, द्रोपदी को,
दाव पर लगा दिया और युधिष्ठिर,
अपने घर की लक्ष्मी को भी,
चौसर में हार गए,आखिर युधिष्ठिर के हाथों से
भी एक महा पाप हो ही गया,,
द्रौपदी को चौसर जीतते ही,
दुर्योधन ने दुशासन से कहा,,
जाओ उस द्रौपदी दासी को,
राजसभा में घसीट कर लाओ,
दुशासन दुर्योधन के आदेश का,
पालन करने चला,
दुशासन अपने हाथों से आज,
एक नारी का अपमान करने चला,
दुशासन ने द्रौपदी के कक्ष में पहुंचकर,
अपनी माता समान भाभी का बड़ा अपमान किया,
द्रौपदी को, पांडवों की पराजय का सारा समाचार सुनाया,
और वो नीच द्रौपदी को दासी कहते हुए,
द्रौपदी के केश पड़कर द्रौपदी को घसीटते हुए,
एक मदमस्त पागल हाथी की भाती
द्रौपदी को राजसभा में ले आया,,
द्रौपदी कहने लगी त्राहिमाम- त्राहिमाम
दुर्योधन ने द्रौपदी से अपनी जांघों पर,
हाथ मारते हुए बैठने को कहा,
और दुशासन को आदेश दिया,
द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का,
द्रौपदी ने धर्मराज युधिष्ठिर से पूछा एक प्रश्न,
मेरे आत्मसम्मान को दांव पर लगाने का,
आपको क्या हक था, युधिष्ठिर के पास
आज द्रोपदी के प्रश्नों का
कोई उत्तर नहीं था,
दुशासन जब द्रौपदी का चीर हरण करने लगा,,
सूर्यपुत्र कर्ण ने भी पांचाली द्रोपदी का,
वेश्या कहकर अपमान किया
महामंत्री विदुर ने महाराज धृतराष्ट्र से,
भयंकर क्रोध में आकर कहा,
अपने नीच निशाचर पुत्रों को रोके महाराज
ये, आज कुरु वंश पर, कलंक लग रहे, है,,
आपकी राज्यसभा में आपके नेत्रों के सामने,
आपकी कुल वधू का वस्त्रहरण हो रहा है,
आप अपने पूर्वजों को क्या मुख दिखलाएंगे
परंतु आज धृतराष्ट्र को नहीं सुनाई दे रही थी,
किसी की विनती किसी की पुकार,
धृतराष्ट्र के नेत्रों पर छाया हुआ था,
पुत्रों के प्रेम का अंधकार
नीच दुशासन खीर खींचे जा रहा था
द्रौपदी ने सबसे सहायता मांगी
क्या धनुर्धर अर्जुन क्या बलशाली भीम
आज झुकी हुई थी, नकुल और सहदेव की,
तलवारे भी दुर्योधन की दासी बनी हुई थी,
पांचाली द्रौपदी ने, राज्यसभा में उपस्थित,
गुरु द्रोणाचार्य, गंगापुत्र भीष्म, कृपाचार्य,
सबसे की सहायता की याचना बारम्बार,
परंतु आज सभी श्रेष्ठ जनों की बुद्धि पर,
दुर्योधन के उपकारों का अंधकार छाया हुआ था
और गंगा पुत्र भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के कारण
थे लाचार, जब द्रौपदी को,
न हुई कहीं से रक्षा प्राप्त,
तब अंत में, पवित्र द्रौपदी ने,
अपने हाथों को जोड़कर, श्री कृष्ण को पुकारा
मुरली मनोहर के नाम का लिया
द्रौपदी ने, सहारा
श्री कृष्ण ने द्रौपदी की पुकार सुनकर
जरा भी देर न की आने मे,
द्रोपदी का चीर बढ़ा कर
मुरली मनोहर ने, दुशासन को,
किया पराजित,द्रोपदी का चीर खींचते,खींचते
दुशासन ने मान लीं हार,
लेकिन कम नहीं हुआ
श्री कृष्ण का चमत्कार
ऐसा चमत्कार देखकर,
सभी ज्ञानीयों की आत्मा का, जाग उठा प्रकाश
जब समाप्त हुआ राज्यसभा में अधर्म,
तब यह तय हुआ पांडवों को जाना पड़ेगा,
बारह वर्ष के लिए वनवास, और रहना पड़ेगा
एक वर्ष अज्ञातवास में, यदि पांडव पकड़े गए,
अज्ञातवास में तो, दंड पुनः भुगतना पड़ेगा
नियमानुसार, जाते-जाते पवन पुत्र भीम ने,
कौरवों को चेतावनी देते हुए की प्रतिज्ञा
पांडु पुत्र भीम ने प्रतिज्ञा लेते हुए कहा,
कि मैं दुर्योधन की जाघ तोड़कर,
और दुशासन के हाथ उखाड़ कर,
उसकी छाती चीर कर दुशासन का,
रक्त पान करूंगा
और मैं दुशासन के रक्त से,
पांचाली द्रौपदी के केश को,
शुद्ध करके अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करूंगा
यह कहकर, पांडव वनवास चले गए,
बारह वर्ष वन में व्यतीत कर,
पांडव एक वर्ष अज्ञातवास का,
राजा विराट के नगर में,
गुप्त रूप से रहकर,
पांडव जब हस्तिनापुर लोटे,
अपना अधिकार अपना राज्य
वापस लेने के लिए,
अपने साथ न्याय करने के लिए,
तो युद्ध की तैयारीया आरंभ हो गई
वसुंधरा पर धर्म स्थापना के लिए,
परंतु इस महायुद्ध महाविनास से पहले,
श्री कृष्ण ने की शांति की पहल
श्री कृष्ण पांडवों के शांति दूत बनकर,
हस्तिनापुर पधारे, मानव कल्याण
और विश्व शांति के लिए,,
कृष्ण ने कहा दुर्योधन से,
यदि तुम हस्तिनापुर और इंद्रप्रस्थ
रखना चाहते हो अपने पास
तो अवश्य रख लो,
बस पांडवों को दे दो तुम
पांच ग्राम पांडव वहीं खुशी से,
खाएगे तुमको हानि न पहुंचाएंगे
परंतु दुर्योधन पांच ग्राम भी न दे सका
उल्टा मूर्ख दुर्योधन श्री कृष्ण को बांधने चला
श्री कृष्ण ने अपना विशाल रूप धारण किया
और दुर्योधन से कहा श्री कृष्ण ने,
जिस विनाश को मैंने टालना चाहा,
हे, दुर्योधन तूने उसी को आमंत्रित किया
हे दुर्योधन रण चाहिए तो तुझे,
रण ही प्राप्त होगा
रणभूमि में हे दुर्योधन तेरे और तेरे भ्राता
दुशासन के कर्मों का एक-एक हिसाब होगा
तेरे सारे सगे संबंधियों का अब महाविनाश होगा
यह मेरा अंतिम संदेश है यह मेरी अंतिम चेतावनी है तुझे
अब कुरुक्षेत्र की भूमि पर,
महाभारत का महासंग्राम होगा
हुआ युद्ध का शंकानाद,
नारायणी सेना आई दुर्योधन के हाथ
अर्जुन को, श्री कृष्ण का सानिध्य प्राप्त हुआ
कुरुक्षेत्र के महाभारत में
सबको उनके कर्मों का दंड मिला
भीष्म पितामह को बाणों की सैया का,
श्राप मिला गुरु द्रोणाचार्य का शीश,
अधर्म का साथ देने के कारण
धृष्टद्युम्न द्वारा काटा गया,
सूर्यपुत्र कर्ण को भी अर्जुन द्वारा,
सूर्य लोक प्राप्त हुआ!
पांडवों के मामा श्री,शल्य ने,
धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा मृत्यु का वरन किया
सहदेव ने, मामा शकुनि को,
उनके बुरे कर्मों का दंड दिया
अंततः भीमऔर दुशासन में,
भीषण युद्ध आरंभ हुआ
भीम ने आज रणभूमि पर,
यम का रूप धारण किया
भीम ने बड़ी निर्दयता से,
दुशासन के दोनों हाथ उखाड़ कर
दुशासन की छाती चीर कर,
दुशासन का रक्त भीम ने
किसी अमृत रस की तरह
ग्रहण किया
अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करते ही,
खुशी में भीम कुरुक्षेत्र की भूमि पर आज
आनंद तांडव करने लगा
पांचाली द्रौपदी के केशों पवित्र करने के लिए
भीम ने दुशासन का रक्त अपने हाथों में भरा,
और चला पांचाली के शिविर की ओर
किसी पागल प्रेमी की तरह
भीम ने पांचाली के केशों को
दुशासन के रक्त से नहलाकर
पांचाली के हृदय की ज्वाला को
शांत किया
दुर्योधन की भी जघा तोड़कर,
भीम और पांडवों ने,
वसुंधरा को कौरवों के
अधर्म और अत्याचार से मुक्त कराकर,
धर्म की विजय का शंखनाद किया…..

आकाश शर्मा आज़ाद
आगरा उप्र

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