एक जीवंत दस्तावेज़- डॉ. रामशंकर चंचल की प्रतिनिधि कविताएँ

कविता केवल भाषा का सौंदर्य नहीं होती, वह आत्मा की पुकार होती है। वह मनुष्य के भीतर की उस गहराई को उजागर करती है जिसे शब्दों में बाँधना कठिन होता है। “डॉ. रामशंकर चंचल की प्रतिनिधि कविताएँ” एक ऐसा काव्य-संग्रह है जो पाठक को संवेदना, विचार और आत्मानुभूति की यात्रा पर ले जाता है। यह संग्रह केवल कविताओं का संकलन नहीं, बल्कि एक जीवंत दस्तावेज़ है जो समय, समाज और मनुष्य के अंतःकरण को एक साथ समेटता है। चंचल जी की कविताएँ उस मौन को स्वर देती हैं जिसे समाज ने अनसुना कर दिया है। उनकी लेखनी में वह ताप है जो अन्याय के विरुद्ध खड़ी होती है, और वह शीतलता भी है जो प्रेम और करुणा की छाया बन जाती है।
इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता इसकी विविधता है। इसमें जीवन के हर रंग हैं—दर्द, प्रेम, संघर्ष, आस्था, विद्रोह, और आत्म-संवाद। चंचल जी की कविताएँ समाज के उस हिस्से की आवाज़ हैं जो अक्सर साहित्यिक विमर्श से बाहर रह जाता है। ‘धूप में बैठा बूढ़ा’, ‘काँपती झोपड़ी’, ‘जिस्म की गर्मी से कपड़े सुखाता वह’ जैसी कविताएँ उस वर्ग की पीड़ा को उजागर करती हैं जो रोज़मर्रा की ज़िंदगी में संघर्ष करता है, लेकिन साहित्य में अक्सर उपेक्षित रह जाता है। चंचल जी ने इन पात्रों को केवल शब्दों में नहीं, बल्कि आत्मा में उतारा है। उनकी कविताएँ पाठक को यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि असली भारत कहाँ है—विकास के चमकते शहरों में या उन गाँवों में जहाँ आज भी रोटी, कपड़ा और मकान एक सपना है।
इस संग्रह में आध्यात्मिकता का भी एक विशिष्ट आयाम है। ‘ईश्वर से प्रश्न’, ‘ईश्वर को पत्र’, ‘किन शर्तों पर ईश्वर ने मेरे भीतर प्रवेश किया’ जैसी कविताएँ मनुष्य और ईश्वर के बीच के संवाद को एक नई दृष्टि देती हैं। चंचल जी ईश्वर से केवल प्रार्थना नहीं करते, वे उससे सवाल भी करते हैं, उसे चुनौती भी देते हैं, और अंततः उसी में विश्वास भी रखते हैं। यह द्वंद्व उनकी कविताओं को गहराई प्रदान करता है। उनकी आध्यात्मिकता रूढ़ियों से परे है—वह आत्मा की खोज है, अस्तित्व की पड़ताल है। वे ईश्वर को एक सत्ता नहीं, बल्कि एक संवाद मानते हैं—एक ऐसा संवाद जो मनुष्य को उसके भीतर की सच्चाई से परिचित कराता है।
प्रेम की अभिव्यक्ति इस संग्रह में अत्यंत कोमल और आत्मीय है। ‘तेरी आँखें’, ‘पहले तुम थी, अब तुम्हारा अहसास’, ‘कमरे में दस्तक देती है तेरी दुआ’ जैसी कविताएँ प्रेम को केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक स्तर पर प्रस्तुत करती हैं। यह प्रेम देह से परे है, यह स्मृति में जीवित रहता है, यह अहसास बनकर साँसों में समाया रहता है। चंचल जी का प्रेम पाठक को उसकी अपनी स्मृतियों में लौटने को प्रेरित करता है—वह प्रेम जो अधूरा होकर भी पूर्ण लगता है। उनकी प्रेम कविताएँ किसी एक व्यक्ति से नहीं, बल्कि समग्र मानवता से जुड़ती हैं। वे प्रेम को एक ऊर्जा मानते हैं—एक ऐसी ऊर्जा जो जीवन को दिशा देती है, उसे अर्थ देती है।
कविता के प्रति चंचल जी का दृष्टिकोण अत्यंत गंभीर और विचारशील है। ‘वही कविता है’, ‘रगों में दौड़ती कविता’, ‘जब बात हिन्दी की हो’ जैसी रचनाएँ कविता के दर्शन को उजागर करती हैं। उनके लिए कविता केवल अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि प्रतिरोध का माध्यम है, परिवर्तन का औज़ार है। वे कविता को एक जीवंत शक्ति मानते हैं जो समाज को जागृत कर सकती है, अन्याय के विरुद्ध खड़ी हो सकती है, और मनुष्य को उसके भीतर की सच्चाई से परिचित करा सकती है। उनकी कविताएँ सत्ता, व्यवस्था और रूढ़ियों के विरुद्ध एक मौन लेकिन तीव्र आवाज़ हैं। वे कविता को एक सामाजिक उत्तरदायित्व मानते हैं—एक ऐसा उत्तरदायित्व जो केवल कवि का नहीं, बल्कि हर संवेदनशील मनुष्य का है।
इस संग्रह की भाषा सरल होते हुए भी अत्यंत प्रभावशाली है। चंचल जी ने शब्दों को सजाया नहीं, उन्हें जिया है। उनकी भाषा में वह सहजता है जो पाठक को बाँध लेती है, और वह तीव्रता भी है जो भीतर तक उतर जाती है। वे भाषा को माध्यम नहीं, साधना मानते हैं। उनकी कविताओं में लोक की गंध है, मिट्टी की महक है, और आत्मा की पुकार है। यह संग्रह पाठक को केवल पढ़ने के लिए नहीं, जीने के लिए आमंत्रित करता है। यह एक यात्रा है—एक ऐसी यात्रा जिसमें हर पाठक अपने-अपने अर्थ खोज सकता है।
“डॉ. रामशंकर चंचल की प्रतिनिधि कविताएँ” केवल एक काव्य-संग्रह नहीं, बल्कि एक आत्मिक दस्तावेज़ है। यह भूमिका उस भावनात्मक गहराई को समर्पित है जो इन कविताओं को पढ़ते समय पाठक के मन में जन्म लेती है। यह संग्रह न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि मानवीय दृष्टि से भी अत्यंत मूल्यवान है। इसे पढ़ना एक अनुभव है, एक संवाद है, एक आत्म-चिंतन है—जो हर संवेदनशील मन को भीतर तक छू जाता है। यह संग्रह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा बनेगा, एक दिशा देगा, और साहित्य को उसकी मूल संवेदना से जोड़ने का कार्य करेगा।
*सागर यादव ‘जख्मी’*




