साहित्य

फ़र्ज़ (पिता)

डॉ. पुष्पा सिंह

जेठ की तपती धूप रहे या,कार्तिक की हो ठण्ड।
अपने बच्चों खातिर सहते,हर मौसम का दण्ड।

सूर्य सा फ़र्ज़ निभाते पिता,खटते सुबहो शाम।
हटते नहि कर्तव्य से कभी वे,किए बिना आराम।
दिल में रखते राज अनेकों,जाने बिन संतान।
पिता सभी के पूजनीय नित,बारंबार प्रणाम।

दीपक सम जलकर पिता सभी के,दूर करे अँधियार।
बहा पसीना फ़र्ज़ निभाते,करते घर उजियार।
त्याग समर्पण घर की खातिर,अपनी खुशियाँ भूल,
ऊँची शिक्षा देकर बच्चे, सारे दिए सँवार।

फ़र्ज़ निभाने में अव्वल अब,पिता अकेले आज।
व्यस्त हो गए बच्चे सारे,पद पर करते नाज़।
नहीं वक्त अब पिता की खातिर,रहते सब परदेश,
गले लगाकर एकाकीपन,पिता छीलते प्याज।

गर्व करें हैं पिता आज भी,फ़र्ज़ निभाएँ आप।
ऐसा ना हो क़र्ज़ बने सब,पिता करें संताप।
बढ़ती उम्र में ध्यान रखो अरु,समय बिताओ साथ,
मात- पिता की सेवा समझो, पूजन वंदन जाप।
डॉ. पुष्पा सिंह

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