
1. घोर निराशा…
के पथ पर मैं…
बढ़ता जाता हूँ…
जितना पास…
बुलाता उनको…
थकता जाता हूँ..
घोर निराशा..
के पथ पर मैं
बढ़ता जाता हूँ..।
2.
वो कहते हैं..
छोड़ रहे तुम..
अपनों का आँगन..
मैं कहता क्या?
भाव सजल हैं..
थका हुआ यह मन..
आज भले..
समझें ना…
मुझको..
कल पहचानेगें..
सूना पथ…
जब हो जायेगा…
कद पहचानेंगे…।
3.
हाहाकार…
मचा अंदर है..
अंदर रखते हैं..
बाहर बस..
चेहरा हँसता है..
हम कब हॅसते हैं..?
जिन्हें प्यार से..
अपनाते हैं..
उनको..खोज रहे..
इन आँखों के
स्वप्न निरंतर
मन को तोड़ रहे..
वो कह चुके…
बहुत चल चुका…
तेरा यह जादू…
मुझे नहीं तुम
अपना समझो
मन पर रख काबू..
सही कहे,
कब तक किसके हैं
कब तक कितने लोग
हम कितने पाषाण हृदय रख
इतना कहते हैं..।
देखो,
घर घर के किस्से को
तुम्हें समझ आये..
जहाँ प्यार
अपनापन पलता
टूटन वहीँ.. छाये..
बेटे बेटी
अपने मन से
सींच रहे सपना..
हर घर के
दादी दादा अब
नहीं कहें.. कहना..।
आखिर क्या?
संतोष नहीं रख
वो अब जीते हैं..?
नहीं पास जो..
अपने रहते…
कितना रोते हैं..?
शब्द शब्द
जिसने सींचा था
अपने आँगन को..
आज रुदन से
मन भर भर क्यों
इतना रोना क्यों?
यही समझ जब
समझ सकेंगे
तब वो रोयेंगे
हम तो नहीं रहेंगे इतना
जब वो होएंगे..।
हम तो नहीं रहेंगे.. इतना..
जब वो होएंगे।।
©®
डॉ. सत्य प्रकाश




