
विपरीत भाव में कान्हा से संवाद करती हुई कविता
कान्हा, क्यों उठाया मुझको, मैं पर्वत स्थिर था, मौन भला,
धरती का बोझ सँभाल रहा, तू आया बालक शैतान चला।
किस अधिकार से छेड़ दिया, मेरी नींद, मेरा विश्राम,
क्या तू जानता पर्वत क्या है, कितना गहरा इसका धाम?
तेरी ऊँगली क्या थाम सकेगी, मैं शिला, मैं शौर्य प्रखर,
तू बस माखन चोर ग्वाल बालक, मैं अडिग, अटल पत्थर स्वर।
पर देखूँ मैं, नभ मुस्काए, तेरे संग नाचे बादल सारे,
गोवर्धन तन झुके अचानक, तेरी लीला के आगे हारे।
अब समझा मैं, तू न बालक, ब्रह्म रूप अविनाशी है,
जो मुझमें प्राण जगा दे, वो गोविंद साक्षात् सृष्टी का राजा है।
अब मैं तेरी छाया बनकर, हर युग में पूजित रहूँ,
जिसे मैंने ललकारा था, उसी के चरणों में झरूँ।
कुलदीप सिंह रुहेला
सहारनपुर उत्तर प्रदेश



