साहित्य

हार

वीणा गुप्त

वे हमारे पड़ोसी थे।
पेशे से डॉक्टर थे।
बड़े होशियार थे।
पैसों के पक्के यार थे।
उनके पास कुछ,
परमानेंट बीमार थे।
नजला-खाँसी हो, या सिरदर्द,
डॉक्टर के बिना लाचार थे।
ये बीमार पैसों के मामले में
बहुत दिलदार थे।
सो डॉक्टर ,उनके गुलाम,
उनके ताबेदार थे।

कभी ये कहते,
डागदर साब, म्हारो
मोती बीमार है।
ज़रा जाँचो तो,
एके माजरौ है
म्हारी घरवाली तो
रोए जा रही है।
बोलै थी, पारसाल
म्हारो बापू
सिधार गयौ ,
अब म्हारे मुतिया की
बारी आ रही है।
डॉक्टर आला गले में डाल,
कुत्ते को जाँचते थे।

हैरान मत होइए जनाब,
हमारे डॉक्टर साहब,
कुत्ते और आदमी को,
एक ही मानते थे।
बस पैसों को पीर जानते थे।

सर्दी-बरसात के मौसम में,
उनके पौ-बारह थे।
सुबहो-शाम क्लीनिक में,
लगती मरीजों की कतार थी।
ज़िंदगी उनकी बसंती-बहार थी।

सीजन में डॉक्टर
जम कर कमाते।
सीजन आफ होते ही फर्जी,
सर्टिफिकेट बनाते,
आमदनी करते,करवाते।
उनकी खुशहाली देख,
हमने सोचा
बेटे को डॉक्टर ही बनाएँगे,
दनादन पैसे कमाएँगे।
जीवन की वैतरणी
तर जाएँगे।

बस ,हम सपने सजाने लगे।
उठते-बैठते,सोते-जागते,
बेटे को समझाने लगे।
बेटा होनहार था,
जल्दी समझ गया।
प्रतियोगिता और पढ़ाई के
एवरेस्ट पर हिम्मत कर चढ़ गया।
ले- दे के आखिर,
वो डॉक्टर बन गया।

हमने सोचा,
अब सुख की छनेगी,
डॉक्टरी बेटे की हमें ,
खूब फलेगी।
योग्यता बेटे की कैश कराएँगे,
बेटे की बहू भी
डॉक्टर ही लाएँगे।
सपने बुलेट ट्रेन से भगने लगे।
दिन पल में गुजरने लगे।

बेटा पड़ोसी डॉक्टर को,
गुरु मान चुका था।
पैसों के मामले में ,
उनसे ज्यादा
रास्ता नाप चुका था।
हमें ज़िंदगी के हसीन होने का,
भ्रम हो चला था।
चैनल जीवन का
रंगारंग हो चला था।

एक दिन बचपन के दोस्त हमारे,
गाँव से हमारे घर पधारे।
हम मिले लपक के गले,
कुशल पूछी,पूछा कैसे पधारे?
मित्र चुप रहे ,संकोच के मारे।
हमने आग्रह किया ,
बात क्या है,
हमें सब बताओ।
दोस्ती का वास्ता है,
कुछ मत छिपाओ।

वे बोले ,हम यहाँ
इलाज के लिए आए हैं।
गांँव की जमीन बेच,
कुछ पैसे भी लाएँ हैं।
हम बोले
पैसों की चिंता छोड़ो यार।
अपना ही डॉक्टर है,
तुम बस हो जाओ तैयार।

पहुँचे लेकर उन्हें
बेटे के क्लीनिक में,
संदेशा भिजवाया ,
बेटा बहुत बहुत बिजी नजर आया।
बोला- पापा घर में ही बात कर लेते,
यहाँ आकर क्यों टाइम बेकार किया,करवाया।
हमने मित्र का परिचय कराया।

उनकी समस्या बताई,
बेटे ने मित्र को गहराई से भाँपा,
अंकल,आप बैठिए,
शिष्टता से फरमाया।
जाते ही उनके ,
हमारे नजदीक आया।

बोला – आप भी पापा ,
क्या बात करते हैं,
आज के जमाने में ,
कृष्ण-सुदामा नहीं,
राजा द्रुपद सही दिखते हैं।
माफ कीजिए,
आपके ये दोस्त ,
मेरे एंगल में फिट नहीं बैठते।
इलाज तो दूर, मुझे तो ये,
कंसलटेशन के लायक भी
नहीं दिखते।

मुफ्त का इलाज
मुझसे न हो पाएगा,
डियर पापा,
घास से यारी करेगा,
तो घोड़ा क्या खाएगा?
किसी तरह इन्हें
यहाँ ये दफा़ कीजिए।
कुछ विटामिन टैबलेट्स
और हाजमे का सिरप ,
कम्पाउडर से लीजिए।
अपनी दोस्ती की इमेज बचाइए,
मेरा भी पिंड छुड़वाइए।

और हाँ,
फिर किसी ऐसे-वैसे को
यहाँ मत लाइए
सॉरी पापा,बात समझिए,
बुरा मत मनाइए।

फिर घंटी बजाकर ,
उसने असिस्टेंट को बुलाया।
मित्र की दवाइयों का परचा
उसे थमाया।
अगला पेशेंट भेजो ,फरमाया।

हम सकपकाए से बाहर आए,
वहाँ मित्र बैठे थे,आशा लगाए।
हम आँसू  पी, ढेर सा मुस्कराए

बोले- बेटे को आपकी
सारी बीमारी बता दी है।
उसने आपको बढिया दवा दी है।
मित्र संतुष्ट नजर आए,
देने लगे मेरे होनहार  बेटे को,
बार-बार दुआएं।

अगले ही दिन ,
विटामिन की गोलियाँ
और हाजमे का शरबत ले,
वे खुशी-खुशी गाँव जा रहे थे।
आंँखों में कृतज्ञता के आंँसू,
छलछला रहे थे।
हम उनसे नजरें चुरा रहे थे।
खुद के घटियापन पर
लज्जा रहे थे।

दे रहे थे खुद को,
बार-बार धिक्कार।
बेटे का डॉक्टर बनना,
आज अखर रहा था पहली बार।
पेशे ने दी थी आज,
मानवता को करारी हार।

वीणा गुप्त
नई दिल्ली

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