
नोबेल पुरस्कार को साहित्य का सर्वोच्च अंतर्राष्ट्रीय सम्मान माना जाता है, लेकिन आज तक कोई हिन्दी साहित्यकार इससे सम्मानित नहीं हुआ है। इसके पीछे कई गहरे और जटिल कारण हैं जो वैश्विक साहित्यिक परिदृश्य में हिन्दी की स्थिति को रेखांकित करते हैं।
नोबेल समिति के सदस्य मुख्यतः यूरोपीय भाषाओं में काम करते हैं, जिसके कारण हिन्दी साहित्य की सूक्ष्मताएँ, मुहावरे और सांस्कृतिक संदर्भ अनुवाद के दौरान खो जाते हैं। ‘करुणा’, ‘विरह’ या ‘लोक’ जैसे शब्दों के भाव अंग्रेजी में सीधे अनूदित नहीं हो पाते। निराला की मुक्तछंद कविताओं या दुष्यंत कुमार के ग़ज़लों की संगीतात्मकता अनुवाद में गायब हो जाती है। इसके विपरीत, जापानी, रूसी या स्पेनिश साहित्य के उच्चस्तरीय अनुवाद लंबे समय से विश्वसनीय माने जाते रहे हैं।
स्वीडिश अकादमी के सदस्यों की साहित्यिक समझ यूरोप-केंद्रित है। प्रेमचंद के ग्रामीण जीवन के यथार्थ, अज्ञेय के भक्ति और आधुनिकता के संघर्ष, या महादेवी वर्मा के नारीवाद और परंपरा के विमर्श पश्चिमी पाठकों को ‘स्थानीय’ लग सकते हैं, जबकि इनमें गहरी सार्वभौमिकता निहित है।
वैश्विक प्रकाशन उद्योग में अंग्रेजी के वर्चस्व के कारण हिन्दी साहित्य को ‘क्षेत्रीय’ मानकर उपेक्षित किया जाता है। लैटिन अमेरिकी या यूरोपीय लेखकों के पास प्रकाशकों, आलोचकों और अनुवादकों का मजबूत नेटवर्क होता है, जबकि हिन्दी लेखक अक्सर स्थानीय प्रकाशनों तक सीमित रह जाते हैं। हिन्दी रचनाओं को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रोत्साहित करने वाली संस्थाओं का भी अभाव है।
यूरोपीय साहित्यिक परंपराओं को ‘विश्वसनीय’ और ‘सार्वभौमिक’ माना जाता है, जबकि एशियाई साहित्य को ‘विदेशी’ या ‘जातीय’ की श्रेणी में रखा जाता है। नोबेल समिति कभी-कभी राजनीतिक संदेश देने के लिए लेखकों को चुनती है, जबकि हिन्दी साहित्य में ऐसे विवादास्पद राजनीतिक विमर्श कम हैं।
हिन्दी में वैश्विक स्तर की आलोचनात्मक विमर्श की कमी है, जो रचनाओं को अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ दे सके। हिन्दी साहित्य विभिन्न धाराओं में बंटा होने के कारण एक सशक्त सामूहिक पहचान का अभाव रहा है। नए लेखकों का रुझान भी क्षेत्रीय प्रसिद्धि तक सीमित रह जाता है।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि नोबेल साहित्यिक मूल्यांकन का एकमात्र पैमाना नहीं है। टैगोर को नोबेल मिला, पर कबीर, तुलसी या मुक्तिबोध जैसे रचनाकार बिना नोबेल के भी अमर हैं। नोबेल के इतिहास में टॉल्स्टॉय और वर्जीनिया वूल्फ जैसे महान लेखक भी इससे वंचित रहे हैं। केवल हिन्दी ही नहीं, तमिल, बांग्ला, मराठी जैसी भाषाओं के साहित्यकार भी नोबेल से दूर हैं, जो एक व्यवस्थागत बहिष्कार को दर्शाता है।
इन चुनौतियों से निपटने के लिए हिन्दी की रचनाओं को ज्यादा से ज्यादा अनुवाद करना आवश्यक है। हिन्दी साहित्य को वैश्विक मंचों पर प्रस्तुत करने के लिए समर्पित संस्थाओं का गठन करना होगा। विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी साहित्य को तुलनात्मक साहित्य के पाठ्यक्रमों में शामिल करना चाहिए। डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर हिन्दी साहित्य की उपलब्धता बढ़ानी होगी।
नोबेल पुरस्कार एक प्रतीक मात्र है, लेकिन हिन्दी साहित्य की वास्तविक शक्ति उसके पाठकों, उसकी संवेदना और उसके सामाजिक योगदान में निहित है। वैश्विक मान्यता के साथ-साथ हमें अपने साहित्य के आंतरिक मूल्यों को सर्वोपरि रखना चाहिए। हिन्दी साहित्य की यह यात्रा किसी बाहरी मान्यता से परे, अपने समय और समाज से गहरे जुड़ाव का प्रमाण है।
डॉ सुरेश जांगडा
राजकीय महाविद्यालय सांपला, रोहतक (हरियाणा)




