
कफ़न ओढ़ाकर,
गहरे में दफ़नाई,
विस्मृति-अंधकार में खोई,
तस्वीरों को निकालने का ,
अवसर आ गया है।
देश मेरा पर्व मनाना चाहता है।
एक खामोश दीर्घ अंतराल बाद,
जतन से सहेजी तस्वीरें,
अब झाड़-पोंछकर ,
चमकाई जायेंगी।
बड़े-बड़े सभागारों में,
चौराहों पर,
करतल ध्वनियों के बीच,
सजाई जाएंँगी।
अनेक जिज्ञासाभरी आँखें
इनसे परिचित होंगी।
तस्वीरों से जुड़े ,
संदर्भों-प्रसंगों को,
तलाशा-तराशा जाएगा।
सामयिकता की बातें ,
उठाई जाएंगी।
नई पीढ़ी अतीत का,
परिचय पाएगी।
कुछ दिनों तक फ़िजाओं को,
त्याग और पराक्रम के ,
चर्चे गहमगाएंगे।
इतिहास गौरवभरा ,
सजीव हो जाएगा।
चहुंँ ओर ओज-उल्लास भरे,
नारे गूंँजेंगे,परचम फहराएंँगे।
गेंदा,गुलाब,चमेली के,
जरी-गोटे से चमकते हार
गूंँथे जाएंँगे।
मूर्तियों पर चढ़ाए जाएंँगे।
जलसे होंगे,
जमावड़ा होगा
बड़े-बड़े लोगों का,
बड़े आदर से बुतों को
दिखावा करते वे
सिर झुकाएंँगे।
भीड़ के सामने
आदर्श बघारेंगे,
सच्ची दिखती सी
झूठी कसमें खाएँगे।
वादे दोहराएंगे।
तस्वीरों द्वारा बताए रास्तों पर,
चलने की ताकीद कर
जनता को,
देश के उजले
भविष्य के प्रति
आश्वस्त हो जाएँगे,
फोटो खिंचेगी,
अख़बार सारे
सुर्खियांँ सजाएंगे।
और उसके बाद,
तस्वीरें फिर से
दफ़ना दी जाएंँगी।
स्वर लहरियांँ खो जाएँगी।
उत्साह उत्सव का
अवसाद में बदल जाएगा।
पतझड़ करेगा प्रतीक्षा
फिर क्षणिक वसंत की।
वीर-पूजा के लिए फिर ,
कोई वीर ढूँढा जाएगा।
देश मेरा फिर
पर्व मनाने के
मूड में होगा।
आतुरता दिखाएगा।
जल्द ही मौका पाएगा।
क्योंकि हम उत्सव-प्रिय हैं।
आभारी हैं अपने इतिहास के,
जो समर्थ है हमारी इच्छा पूर्ति में।
वीणा गुप्त
नई दिल्ली




