साहित्य

जलते रावण के मन की व्यथा

आचार्य धीरज द्विवेदी "याज्ञिक"

रावणों के मध्य आज एक पुतला जल रहा था।
क्या है अपराध मेरा मन में मनन कर रहा था।
निज निस्तार हेतु प्रभु से ही प्रेरित होकर।
परिजन तारने का सब उपक्रम कर रहा था।
द्वारपाल बन के सदा प्रभु की सेवा ही किया।
सनकादिकों के श्राप हंस के मैंने ही जिया।
प्रवृत्ति राक्षसी रही तो निज स्वभाव कैसे छूटे।
वेदादि को जानते भी अहंकारी रहा झूंठे।
शीघ्र मुक्त होने को पाप बारंबार कर रहा था।
कहीं अपनाएं न स्वामी मन में भी डर रहा था।
एक वस्त्रा द्रौपदी दुशासन सभा में घसीट लिया।
किन्तु माता सीता पर बल प्रयोग मैंने ना किया।
अब भी दुशासन अपना कर्म निंदित कर रहे हैं।
पाण्डवों का राज्य अब भी दुर्योधन ही हर रहे हैं।
धार धीरज को दशानन प्रश्न अपना कर रहा था।
क्यों मैं प्रतिवर्ष जलता यह विचार चल रहा था।
।। आचार्य धीरज द्विवेदी “याज्ञिक”।।

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