साहित्य

जन्म एक आस का

वीणा गुप्त

रोज जैसा ही था
वह दिन भी,
उस दिन भी तो,
उजला सूरज निकला था।
पत्तियों को थपकाती,
संगीत सुनाती,
फूलों से खुशबू चुराती,
हवा भी इठलाती सी ,
बह रही थी।
चिड़ियाँ भी गा रही थीं।
ओसकण चमकते थे मोती से।
दुधमुंँहे का चूम माथा,
माँ उसे जगा रही थी।
सचमुच वह दिन भी,
रोज सा ही सुंदर था।
हाँ , आशंकाएँ
जरूर मंडरा रहीं थीं,
किसी भयावह अनहोनी की।

लेकिन विश्वास भी प्रबल था,
इनके छंँट जाने का।
विवेक और मानवता की
जीत का।
दुर्भाग्य लेकिन ,
रूख हवाओं के बदल गए।
सूरज कांँप कर छिप गया,
कलेजा पर्वत का हिल गया।
ओसकण अश्रु बन गए।
सपन हो दफ़न गए।
एक मनहूस मरघटी सन्नाटा,
पसर गया सब ओर।
दुनिया को लील जाने को
मौत  करोड़ों जीभें
लपलपाने लगी।
परमाणु का पिशाची अट्टहास
विश्व को  दहला गया।

धिक्कार उठा विज्ञान खुद को।
ज़ार- ज़ार रो दिया।
धरती के बेटों ने
माँ की छाती पर,
कुलिश प्रहार किया।
इतिहास में
कालिमा से भी काला,
रक्तभरा,दुर्गंधयुक्त,वीभत्स
एक पन्ना और जुड़ गया
युद्ध का,विध्वंस का।

अब कोई हरियाली नहीं
लहराती थी।
अब कोई शिशु
नहीं तुतलाता था।
अब कोई चिड़िया
नहीं चहचहाती थी।
अब कोई प्यार का गीत
नहीं गाता था।

निर्माणों के सभी ऊँचे परचम
धराशायी हो गए थे।
सारी संवेदनाएं,मूल्य सारे
ओढ़े बिना कफ़न ही
आगोश में मौत की
सो गए थे।

हिरोशिमा और नागासाकी के
स्मृतिशेष अतीत और
वर्तमान को, अजन्मे अज्ञात,
अपंग आगत को,
वक्ष से चिपटाए,
धरती बिलख रही थी।
मरघट  की उस चुप्पी को
चीरता उसका विलाप,
जो चिथड़े-चिथड़े हो गए।
क्षितिज से टकराता,
उसी तक लौट आता था ।
बार-बार,कितना करूण था।

एक गूंँज और भी थी वहाँ,
विजेता के प्रेतिल उन्माद की,
रासायनिक धुएँ के
बादल बनाती,फुँफकारती।
पाषाण सी निस्पंद,
आहत,व्यथित धरती ,
सुनती थी
यह गूंँज-अनुगूंँज।

अंतराल बाद,
बदलाव आया।
दुर्गंध कम होने लगी।
छटपटाती धरती फिर से,
जन्म मानवता को देने लगी।
अंधेरा छंँटने लगा।
किरण जगमगाने लगी।
विनाश में निर्माण की
आहटें आने लगीं।
विश्व कल्याण का
लक्ष्य लेकर
यू .एन .ओ  आने लगी।
शंखनाद हुआ नवयुग का
आशा का अंकुर पनपा।
सूरज की सतरंगी किरण
उसे नहलाने लगी।
पीड़ित दलित मानवता को
उठाने यू .एन .ओ  आने लगी।

अंधकार से प्रकाश की ओर
असत्य से सत्य की ओर,
मृत्यु से अमृत की ओर ,
धरती ये जाने लगी।

वीणा गुप्त
नई दिल्ली

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