
‘केलवा के पात पर उगेलन सूरूजमल’ लोकगीत के महापर्व छठ की सांस्कृतिक छटा आज पूरे भारतवर्ष में दिखाई दे रही है। यह पर्व खासतौर पर उत्तर-पूर्वांचल राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड के साथ हमारे पड़ोसी देश नेपाल में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। वर्तमान सोशल मीडिया के युग में छठ महापर्व की छटा अमेरिका, जर्मनी सहित विश्व के अन्य देशों में भी दिखने लगी है। हाल ही में देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अपने रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में कहा कि भारत सरकार इस पर्व को यूनेस्को के सांस्कृतिक हेरिटेज लिस्ट में शामिल करवाने का प्रयास कर रही है। छठ महापर्व सूर्य, जल, एवं प्रकृति की उपासना का महापर्व है। छठी मैया इस पर्व की मुख्य देवी हैं। पौराणिक लोक मान्यताओं में छठी मैया को प्रकृति के छठे स्वरूप एवम् सूर्य देव की बहन कहा गया है। इस महापर्व को सूर्य षष्ठी व्रत के नाम से भी जाना जाता है। यह पर्व उगते एवं अस्त होते सूर्य (उषा और प्रत्यूषा) की पूजा करने की वैदिक पद्धति में अद्वितीय है जो जीवन चक्र और स्वयं प्रकृति का प्रतीक है। तीन रातों और चार दिन का यह महापर्व धार्मिक अनुष्ठान से कहीं अधिक अनुशासन, तपस्या और आत्म-नियंत्रण का पर्व है जो एक भक्त की पवित्रता, आत्मविश्वास एवम् आत्म-अनुशासन को प्रदर्शित करता है। यह पर्व सामाजिक समरसता का भी प्रतीक है जहाँ लोग बिना किसी भेद भाव के नदी या तालाब के घाटों पर एक साथ मिलकर सूर्य देव एवं छठी मैया की आराधना करते हैं।
एक कथा के अनुसार प्राचीन काल में राजा प्रियव्रत ने अपनी पत्नी मालिनी के साथ महर्षि कश्यप से पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया था, जिससे राजा को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई परन्तु उसमें जीवन नहीं था। राजा प्रियव्रत ने शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से लगातार पुत्र रत्न प्राप्ति हेतु देवी की उपासना की। राजा की करुण पुकार सुनकर सृष्टि के छठे भाग की छठी देवी प्रकट हुई और अपने स्पर्श से उस निर्जीव पुत्र को वर स्वरूप जीवन प्रदान किया। उसी समय से छठ मइया का यह व्रत प्रचलन में आया। त्रेता युग में सीता माता ने एवं महाभारत काल में पांडवों की पत्नी याज्ञसेनी द्रौपदी के साथ देव माता अदिति ने भी इस व्रत को किया था। पुराणों में अन्य और भी कथाएँ वर्णित हैं। प्राकृतिक उपहारों से प्रकृति की पूजा का यह अनुपम पर्व अपने आप में एक विशिष्ट महत्त्व रखता है। प्रथम दिन नहाय-खाय, द्वितीय दिन खरना, तृतीय दिन अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य एवम् चौथे दिन उगते सूर्य को अर्घ्य के साथ इस पर्व का समापन होता है। व्रतियों द्वारा गाए जाने वाले “केलवा के पात पर उगेलन सूरूजमल झांके झुके”, “कौन खेत जनमल धान सुधान हो”, “उगु न सुरुज देव अर्घ्य के भइल बेर”, “उगी हे दीनानाथ” जैसे मनमोहक छठ लोक गीतों में प्रकृति के मनमोहक स्वरूपों की छटा दिखाई देती है। वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से यह व्रत मन, आत्मा एवम् चेतना के उच्चीकरण का मार्ग है। उपवास की प्रक्रिया को आधुनिक विज्ञान में इंटरमिटेंट फास्टिंग कहा जाता है जो जैविक क्रियाओं में सुधार लाती है। उगते एवम् अस्त होते सूरज की आराधना जीवन के हर उतार चढ़ाव को एक समान रूप से स्वीकार करने की गहन प्रेरणा देती है।
नरेन्द्र कुमार
सहायक प्राध्यापक
वी थ्री कालेज ऑफ नर्सिंग एंड पैरामेडिकल साइंसेज, रुद्रपुर उत्तराखंड



