साहित्य

कवि कहो न

वीणा गुप्त

कहो न ,कवि प्रवर !
कहते समय
गाथा महाभारत की
क्या छलके नहीं थे,
नयन तुम्हारे?
कंठ भी भावातिरेक से
रूंधा होगा।
एक बार नहीं,
कई-कई बार।
हुआ था न?
कवि कह दो न ।

क्या  अन्याय के प्रति,
आक्रोश भरी वाणी ने
तुम्हारी
तिरस्कार नहीं किया होगा
अन्यायी का
किया था न?
कवि कह दो न।

जब-जब अधर्म ने
स्वयं को उचित बताया,
जब-जब विरूपता ने
सत्य,शिव,सौंदर्य को
निर्लज्ज हो झुठलाया,
तो क्या भाव था
मन में तुम्हारे आया।

द्रौपदी का चीर हरण
नारी अस्मिता का कलंक
कैसे कर पाए
यह चित्रण ?
कंपित लेखनी तुम्हारी
रो उठी होगी।
जाने कैसा-कैसा
लगा होगा तुम्हें,
लगा था न?
कवि कह दो न।

कैसा-कैसा लगा था,
तभी तो भीम- स्वर में,
किया था तुमने गर्जन।
दु:शासन के रक्त से।
द्रौपदी केश- प्रक्षालन का,
किया था प्रण।
पर फिर क्यों हो गए
विवश,अवश?
बताओ न।

क्यों नहीं किया
भीष्म की भीषण
वाणी को मुखर?
क्यों नहीं दिया ,
द्रुपद-सुता के प्रश्नों का उत्तर?
क्यों पराक्रम को बैठा दिया
सिर झुकाकर?
क्यों होने दिया,
मर्यादा को अमर्यादित?
क्यों अजस्र वाणी तुम्हारी
हो गई थी मौन?
बताओ न पूज्यवर।

माना कि तुम थे,
ब्रह्मर्षि,तत्वज्ञानी
निर्विकार,निस्स्पृही,
पर जनक भी तो थे।
अपनी ही संतति का,
भीषण अधोपतन,
कैसे अंकित कर पाए
महाभारत के अध्यायों पर?
बताओ न मुनिवर।

“सब कुछ है यहीं पर,
न कुछ इससे इतर”
महाभारत के प्रारंभ में ही,
यह कह ने वाले ऋषिवर,
इसी विनाशक सब कुछ के
त्याग का संदेश
क्यों न दे पाए,
उस स्वार्थी ,मदांध दंभ को
जो युद्ध-पथ पर था
अग्रसर,निरंतर?
दिया था न?
बताओ न।

गीता के अमर उद् -घोषक,
लीला पुरुषोत्तम
श्रीकृष्ण के रूप में,
कर्मयोगी बने तुम,
अनिष्ट को
टाल क्यों न पाए?
बताओ न।

जब कोमलताएँ रो रहीं थीं।
मदमस्त थी अहम्मन्यता,
सत्ता थी निरंकुश,
शक्ति थी विवश,
तो पूज्य पितामह व्यास,
तुम क्यों न कर पाए,
उसका ताड़न,
उसका वर्जन?
बताओ न।
किया था न?

युद्ध की विभीषिका,
मृत्यु का तांडव
अपार हाहाकार,
वेदना,चीत्कार,
वीभत्स होती स्थितियाँ,
कैसे सह पाए होगे
तुम करूण-अंतर,
कविवर?
बताओ न।

पर मुझे पता है,
तुम मानो या न मानो,
धैर्य तो तुम्हारा भी,
अधीर हुआ होगा।
नियति की प्रबलता,
होनी की अनिवार्यता,
कर्मफल का भोग,
कह कर,इन प्रश्नों को,
अनसुना मत करो,
उत्तर दो।
क्योंकि प्रश्न ये,
मेरे ही नहीं हैं,
तुम्हारे भी हैं।
हैं न? स्वीकार करो,
बताओ न।

भले ही वीतरागी थे तुम,
मोह-राग से परे संन्यासी,
पर मानव भी तो थे।
मन के किसी कोने में
संवेदन भी धड़कते होंगे
अश्रु भी छलकते होंगे।
भीगा होगा मन ,
तुम्हारा भी बार-बार
जब उत्तरा की कोख में,
पल रहे कुरू वंश के
इकलौते अंकुर पर,
किया गया था
ब्रह्मास्त्र प्रहार।
हाँ,बरसे थे ,
तब नयन तुम्हारे,
मूसलाधार।
बरसे थे न?
मुझे तो पता है।
तुम भी कहो न,
विगलित अंतर,
कवि प्रवर।
कह दो न।

इंगित पर तुम्हारे
श्रीकृष्ण ने दिया था
जीवनदान,
महाभारत के रक्तरंजित
अंबर पर हुआ था
कुरूकुल सूर्योदय।
पूज्यवर!
वेदना असीम तुम्हारी,
क्या थमी नहीं होगी
उस समय?
लेखनी भी हुई होगी
उल्लसित,
आई होगी
क्षीण सी मुस्कान,
तुम्हारे अधरों पर।
आई थी न?
कह दो न।

महाभारत के प्रणेता,
संस्कृति के वाहक,
अमर गाथा-गायक,
महर्षि वेदव्यास !
कैसा लगा होगा तुम्हें,
जब विजय-प्राप्ति के बाद,
देखा होगा तुमने,
मरघट बने ,
हस्तिनापुर में प्रविष्ट होते,
कातर,आर्त ह्रदय लिए,
व्यथित, युधिष्ठिर को,
भग्न विजयोल्लास धारे,
भीम और अर्जुन को,
पुत्र-वंचिता पांचाली को,
और पुत्रहंताओं के
स्वागत में खड़े
अंधनेत्रों में प्रतिशोध भरे,
क्रोध-कंपित तन लिए,
वचनों में श्राप छिपाए,
अधरों पर मुस्कान सजाए,
सर्वस्व वंचित,
धृतराष्ट्र और गांधारी को।

कवि कहो न।
कैसे देख पाए होगे तुम?
यह सब?
कितना अकुलाया होगा मन?
कहना है कठिन,
मुझे पता है।
पर कह दो न।

आज कह दो,
बात मन की सब ।
कहने से व्यथा बँट जाएगी।
दुःख की अमा छँट जाएगी।

कैसे कह दूँ मैं यह,
पर आश्वस्त हूँ मैं,
कह देने पर सब
सच-सच
पुनरावृत्ति महाभारत की
नहीं हो पाएगी।
मानवता और आँसू
न बहाएगी।
धरा कुरूक्षेत्र की
शोणित  यह,
कुछ उजली हो जाएगी।
स्वर लहरी गीता की
लहराएगी।

आशीष भरा अपना
शीतल ,वरद -हस्त,
जगती के
संतप्त मस्तक पर,
धर दो न कविवर,
धरोगे न?
कवि कहो न?

वीणा गुप्त
नई दिल्ली।

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