साहित्य

क्या,दीया जलाना मना है

शशि कांत श्रीवास्तव

अँधेरा घना है
कुछ सूझ नहीं रहा -अब,
साया भी समा रहा अपने में,
क्या, दीया जलाना मना है?
तारे जो चमक रहे थे ,कल तक
बिखर रही थी धवल चाँदनी,
जाने वो सब कहाँ खो गये
इस गहरे घने अँधेरे में,
क्या, दीया जलाना मना है?
जलते दीपक की ज्योति से,
दूर भागता तम भी उससे,
होने को विलीन तम में,
और दिखाता राह,
भटके हुए राही को,
इस गहन अँधेरे में,
अब भी,
क्या, दीया जलाना मना है?

शशि कांत श्रीवास्तव
डेराबस्सी मोहाली, पंजाब
©स्वरचित मौलिक रचना
04-05-2021=20:56hr.

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