साहित्य

मैं द्वापर हूँ

वीणा गुप्त

मैं द्वापर हूंँ।
श्रीकृष्ण की
दिव्याभा से दीपित।
गीता-ज्ञान से पूरित,
यमुन-उर्मि -कलगान गुंजित।
अपने युग चरणों पर खड़ा,
धर्म की स्थिरता के सहारे।
भविष्य के प्रति,
अमित विश्वास धारे।
मैं द्वापर हूंँ।

साक्षी हूंँ मैं,
उत्थान- पतन का।
धर्म -अधर्म का।
हास- रूदन का।
मूल्यों के अवमूल्यन का,
चारित्रिक -पतन का।
कंस की क्रूरता का,
वसुदेव -देवकी की
अतृप्त ममता का,
मैं द्वापर हूँ।

साक्षी हूंँ मैं,
कान्हा के नटखट शैशव का।
ब्रज के प्रकृति- वैभव का।
दधि -माखन की सुगंध का।
कालिंदी तट के कदंब का।
गोरज सनी गोधूलि का।
वत्स के लिए रंभाती ,
आकुल गैया का।
कान्हा को दुलराती ,
जसुदा मैया का।
मैं द्वापर हूंँ।

साक्षी हूंँ मैं,
राधा की मुस्कान का।
बांसुरी की मृदु तान का,
कालिंदी तट के रास का,
चंद्र- ज्योत्स्ना के हास का।
कालिया नाग मर्दन का,
नटवर के नर्तन का।
मैं द्वापर हूंँ।

साक्षी हूंँ मैं,
दुष्ट कंस के संहार का।
गोपियों के प्रेम-उद्गार का,
उद्धव के निर्गुण संसार का।
भ्रमरगीत के गुंजार का।
ज्ञान पर भावना की विजय का ।
उद्धव के तरंगित हृदय का।
उमंगित राग-पारावार का।
ब्रज के नेह अपार का।
मैं द्वापर हूंँ।

साक्षी हूंँ मैं,
हस्तिनापुर की गाथा का,
शांतनु की काम-पिपासा का।
पितृभक्ति की साकार प्रतिमा,
भीषण व्रत धारी देवव्रत का।
नियति-नटी की कठपुतली
बने आर्यावर्त का।
सत्यवती के रूप – दंश‌ का,
निर्वंश होते कुरूवंश का।
मैं द्वापर हूंँ।

साक्षी हूंँ मैं,
वंश -त्राता व्यास का।
व्यंग्य भरे इतिहास का।
धृतराष्ट्र के त्रास का।
पांडु के वीतराग का।
भीष्म की भग्न- आस का।
असफल संधि प्रयास का।
चक्रव्यूह निर्माण का।
अभिमन्यु के बलिदान का।
विदुर की सुनीति का,
जय पाती अनीति का।
मैं द्वापर हूंँ।

साक्षी हूंँ मैं,
राजनीति की जटिलता का,
शकुनि की कुटिलता का।
गांधारी के अविवेक का।
भीष्म के शक्ति दर्प का।
अंबा के प्रतिकार का।
कुंती के हाहाकार का।
कर्ण की पहचान का,
कृष्णा के अपमान का।
आकुल -व्यथिता उत्तरा के
गर्भ में मरकर पनपते,
अश्रुसिंचित वरदान का।
मैं द्वापर हूंँ।

साक्षी हूंँ मैं,
लाक्षागृह दहन का।
अधिकारों के हनन का।
द्यूतक्रीडा़ के षड़यंत्र का।
पांचाली के प्रश्न बाण का,
न्याय के अवसान का,
नारी -अस्मिता अपमान का।

मैंने सुना है,
छल,वासना, दंभ से भरा
अट्टहास धनतंत्र का।
कायर मौन राजतंत्र का।

सुना है मैंने,
कुरूक्षेत्र की रक्तरंजित
शवों से पटी ,धरा का चीत्कार।
बाल, वृद्ध , विधवाओं
का विलाप अनंत -अपार।
वक्ष पर झेला है मैंने,
युद्ध का पाशविक उन्माद,
विजय का गहराता अवसाद,
प्रलाप आशा का,
तांडव हताशा का ।
मैं द्वापर हूंँ ।

साक्षी हूंँ मैं,
वेदना  के गर्भ से,
जन्म लेते हर्ष का।
अरुणाभा लिए,
भरतवंश के उत्कर्ष का।
युद्ध औचित्य पर प्रश्र धरते,
विवेक और विमर्श का।
धर्म -उत्थान के लिए,
साधुजन परित्राण के लिए,
संभवामि युगे-युगे के
मंगल उद् घोष का।
नवयुग की अगवानी हेतु,
पांचजन्य के जयघोष का।
मैं द्वापर हूंँ।

वीणा गुप्त
नारायणा विहार
नई दिल्ली।

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