
” रास ” शब्द का मूल है “रस”। रस स्वयं भगवान कृष्ण ही है इसलिए उन्हें ” रासो वै स: ” कहा गया है। जिस दिव्य क्रीडा में एक ही रस अनेक रसों के रूप में एकाकार होकर अनन्त रसों का आस्वादन करे , एक ही रस अनेक रस समूह में प्रकट होकर स्वयं ही आसवाद्य- अस्वादक लीला धाम विभिन्न प्रकार के आलम्बन- उद्दीपन के रूप में क्रीड़ा करें उसी को “रास” का नाम दिया जा सकता है ऐसा विद्वानों का मानना है। भगवान की यह दिव्य क्रीडा उनके लीला धाम में तो सतत हुआ करती है लेकिन कुछ प्रेमी साधकों की साधना के फलश्रुति के रूप में कभी-कभार भूमंडल पर भी यह दिव्या क्रीडा होती है। भगवान कृष्ण प्रेमावतार पूर्णावतार हैं और गोपियों की साधना पूर्ण हो चुकी थी फलागम के रूप में परमानंद की प्राप्ति भूमंडल पर शरद पूर्णिमा के दिन प्रेम के संकल्प के रूप में भगवत कृपा का पूर्ण रूप महारास का आयोजन हुआ जिसका आस्वादन वही कर सकता है जो इसका अधिकारी जीव है। यहांँ जड़ चेतन का भाव समाप्त हो जाता है।

वर्तमान युग अतिबौद्धिक और भौतिकतावादी है। वैज्ञानिक दृष्टि तर्क एवं तथ्य आधारित है। मानव मस्तिष्क भी समय की गति के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। कभी अंतर्दृष्टि प्रभावी होती है तो कभी बाह्य दृष्टि। वर्तमान चिंतन ईश्वर की सत्ता को भी तर्क की कसौटी पर कसते हुए बाह्य प्रमाणों के आधार पर जांँचना और परखना चाहता है ऐसी स्थिति में दिव्य लीलाओं, चैतन्य का चिद्विलास इंद्रियातीत अनुभवों को न समझ पाने के कारण शंका का उत्पन्न हो जाना सहज और स्वाभाविक है । इसमें कुछ बहुत आश्चर्य नहीं है। इसकी अनुभूति और आनन्द की प्राप्ति तो परम परमेश्वर की अहैतुकी कृपा से ही संभव है। धन्य है भगवत्कृपा प्राप्त हुए महात्मा जिनकी अनुभूतियों में रस का सागर सदैव उमड़ता रहता है क्योंकि वहांँ जड़ चैतन्य की सत्ता ही समाप्त हो जाती है। सम दृष्टि विकसित होती है। भगवत दृष्टि में देह दही का भेद नहीं है इसी का पूर्ण प्राकट्य महारास में होता है जो ज्ञान विज्ञान की सीमाओं से परे हैं। महारास में “स्थूल” “सूक्ष्म” और “कारण शरीर” तीनों एकाकार हो जाते हैं। यहाँ जैव अजैव की संपूर्ण सत्ता का विलय हो जाता है और उसका स्वरूप सच्चिदानंदमय हो जाता है । इसी भाव को विभिन्न रचनाकारों ने अपने-अपने तरीके से देखा समझा और समझाने का प्रयास भी किया तथा आनंद सरोवर में डुबकी लगाई। भागवत महापुराण में इसका चरम निकष मिलता है-
” एवं शशांकाँशुविराजिता निशा, स सत्यकामोनुरता मूल बलागण:।
सिषेव आत्मन्यवरुद्ध सौरत:, सर्वा शरत्काव्य कथा सार साश्रय:।।
अर्थात- शरद कि वह रात्रि जिसमें सभी रत्रियाँ पूंँजी भूत हो गई थी बहुत ही सुन्दर थी काव्य में शरद रात्रि की जितनी रस सामग्रियों का वर्णन मिलता है उन सबसे वह युक्त थी इसमें सब गोपियों के साथ बिहार किया यहांँ यह स्पष्ट है कि श्री कृष्णा सत्य संकल्प है यह उनकी चिन्मय लीला है जो जीव को काम के अनुभव के साथ काम के परे ले जाता है। माधुर्य भाव में आह्लादित करता है। इसका रस महापुराण में अपनी तरह से है सूरदास ने अपनी तरफ से लिया , जयदेव जी ने अपनी तरह से और बहुत सारे रचनाकारों ने अपनी अपनी तरह से।

“गीत राधा माधव” भी इसी में जुड़ने वाली एक कड़ी है।
भक्ति भाव में ऐसे तो सभी प्रकार की भक्ति उत्तम होती है लेकिन मधुरा भक्ति को सभी आचार्यों ने अति उत्तम माना है। इसी मथुरा भक्ति का चरम निकष महारास में है। जहाँ देह देही का भाव तिरोहित हो जाता है। प्रेम के अलौकिक दिव्य आनन्द की अनुभूति होती है। इस दशा में अहं भाव समाप्त हो जाता है बचती है तो सिर्फ प्रिय से मिलने की ललक और विरह की पीर। गीत राधा माधव कृत भी इसी मधुरा भक्ति की यात्रा कराती है। जिसमें रचनाकार ने जीव के ” स्व” भाव से चलकर परमात्मन भाव के महा मिलन की यात्रा सात सोपानो में मधुरा भाव स्थापित करने हेतु कराई है। जहाँ वंशी का निनाद है , महारास में आगमन है , अहंकार का होना है , विरह का बढ़ जाना है, फिर मनुहार , महा मिलन और समाहार का समय आता है जहांँ जीव चैतन्य विलास में समाहित हो जाता है। नाद ब्रह्म की स्वर लहरी संगीतात्मकता के आनंद सागर में जीव को आकंठ डुबोती है इस संगीतमय यात्रा को केशव कल्चर संस्था नई दिल्ली जिसकी संस्थापिका आदरणीया डॉ. दीप्ति शुक्ला जी हैं के निर्देशन में “गीत राधा माधव “कृति के दस गीतों का एल्बम बना कर “केशव कल्चर ” यूट्यूब चैनल पर प्रसारित करके जनमन को आह्लादित करते हुए सर्व सुलभ करने का कार्य किया है। इस महनीय कार्य में इटारासी से डॉ. नीरज कुमार “नीर” ” ने गीतों के स्वरबद्ध संयोजन में भाव प्रवढ़ता देकर महनीय भूमिका निभाई दोनों के सम्मिलित सहयोग से संगीत मय ऑडियो को AI विसुअल से सुसज्जित यह दस गीत प्रस्तुत किये गए l इसी श्रखला के दो गीटन के विसुअलस डॉ ज्ञानेश्वरी सिंह ‘सखी’ के सौजन्य से जन्माष्टमी को कृष्णा और नीरु द्वारा ai से बनाये गए इस एल्बम में वेणु का नाद है और जीव के रूप में राधा की विरह वेदना है जिसकी अनूठे तरीके से अनुभूति कराई है जिससे जीव इस संगीतमय मिलन के आनन्द सरोवर में गोते लगा सके और मधुरा भक्ति में डूब जाए जहाँ संसार के सारे ताप समाप्त हो जाँए और शेष बचे –
सच्चिदानंद रुपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे.
तापत्रय: विनाशाय श्री कृष्णाय् वयं नम:
अनुज तिवारी
उन्नाव




