बिहार

महर्षि वाल्मीकि जयंती पर रन्नूचक में सैंतीसवाँ वार्षिकोत्सव श्रद्धा एवं सोल्लास से सम्पन्न

दीप्ति शुक्ला की रिपोर्ट

रन्नूचक (भागलपुर)।
महर्षि वाल्मीकि जयंती के अवसर पर ग्राम रन्नूचक में आयोजित वार्षिक समारोह का यह वर्ष सैंतीसवाँ पड़ाव रहा। इस आयोजन का शुभारंभ वर्ष 1989 ई. में गुरुदेव आचार्य शिव बालक राय द्वारा किया गया था। तब से लेकर आज तक यह पावन परंपरा अविरल रूप से चलती आ रही है।

आचार्यश्री के परिवार में अनेक शोकदायक घटनाओं के बावजूद यह श्रृंखला कभी रुकी नहीं — इसका श्रेय जाता है आचार्यश्री के कृती पुत्र डॉ. अंजनी कुमार राय को, जिनकी अपने पिताश्री के संकल्प और इस सांस्कृतिक अनुष्ठान के प्रति अटूट निष्ठा ने आयोजन को निरंतरता दी।

इस वर्ष भी वाल्मीकि जयंती पर्व सोल्लास एवं श्रद्धाभाव के साथ मनाया गया। कार्यक्रम में क्षेत्र के अनेक विद्वज्जनों, शिक्षाविदों एवं साहित्यिक अनुरागियों ने भाग लिया। समारोह में विविध सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ एवं विचार-गोष्ठियाँ हुईं, जिनमें महर्षि वाल्मीकि के जीवन-दर्शन, रामायण की महत्ता और आचार्यश्री के कर्तृत्व पर विचार प्रकट किए गए।

कार्यक्रम का एक प्रमुख आकर्षण रहा डॉ. अंजनी कुमार राय की चार नई पुस्तकों का लोकार्पण। इन पुस्तकों में —
1️⃣ यदि वा मन्यसे वीर! — (श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण के सुन्दरकाण्ड का हिंदी पद्यानुवाद)
2️⃣ वाली आख्यान — (दोहा छंद में रचित लघु प्रबंध काव्य)
3️⃣ विविधा — (गद्य संकलन)
4️⃣ अंततः — (काव्य संकलन)
शामिल हैं।

लोकार्पण सत्र में तिलका मांझी विश्वविद्यालय, भागलपुर एवं रांची विश्वविद्यालय के कार्यरत और सेवानिवृत्त प्राध्यापकों सहित अनेक साहित्यकारों ने अपनी उपस्थिति और विचारों से समारोह की गरिमा बढ़ाई। वक्ताओं ने महर्षि वाल्मीकि को भारतीय संस्कृति का आदि कवि बताते हुए उनकी काव्य दृष्टि और आचार्यश्री शिव बालक राय के योगदान को युगप्रेरक बताया।

समारोह में डॉ. अंजनी कुमार राय ने भी अपने विचार रखे और कहा कि “महर्षि वाल्मीकि केवल रामायण के रचयिता नहीं, बल्कि मानवता के दिशा-सूचक हैं। उनके आदर्श आज भी समाज में नैतिकता और कर्तव्यबोध का दीप प्रज्वलित करते हैं।”

उन्होंने कहा कि इस आयोजन से उनके अंतर्मन को अद्भुत उत्फुल्लता और संतोष की अनुभूति हुई, जो लंबे समय बाद उन्हें प्राप्त हुई।

रन्नूचक में आयोजित यह आयोजन न केवल एक धार्मिक उत्सव रहा, बल्कि साहित्य, दर्शन और संस्कार का एक जीवंत संगम बन गया।

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