आलेखधर्म/आध्यात्म

नरक चतुर्दशी

योगेश गहतोड़ी "यश"

दीपावली का उत्सव केवल एक दिन का नहीं, बल्कि यह पाँच दिवसीय आध्यात्मिक यात्रा है। इस यात्रा के प्रत्येक पड़ाव का अपना विशिष्ट अर्थ और महत्व है। धनतेरस से आरंभ होकर गोवर्धन पूजा और भाईदूज तक पहुँचने वाले इस पर्व में “नरक चतुर्दशी” एक विशेष स्थान रखती है। यह वह क्षण है जब मनुष्य बाहरी दीपों को जलाने से पहले अपने भीतर के अंधकार को पहचानता है। वर्ष भर के कर्म, विचार और व्यवहार की धूल मन पर जम जाती है। इस दिन का सन्देश है — *“पहले स्वयं को शुद्ध करो, तभी संसार को उजियारा दे सकोगे।”* इसलिए इसे “छोटी दीवाली” भी कहा गया है, क्योंकि यह बाहरी नहीं, भीतर की दीवाली का आरंभ है।

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अत्याचारी नरकासुर का वध किया था। नरकासुर ने सोलह हज़ार कन्याओं को कारावास में बंद कर रखा था, जो उसकी वासना और अहंकार का प्रतीक था। श्रीकृष्ण ने उसका अंत कर इन कन्याओं को मुक्त किया। यह कथा केवल ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि एक गूढ़ प्रतीक है। नरकासुर किसी व्यक्ति का नाम नहीं — वह प्रत्येक मनुष्य के भीतर छिपा वह असुर है जो लोभ, वासना, क्रोध, मोह और अभिमान से प्रेरित होता है। वह दूसरों को नहीं, पहले स्वयं को बाँधता है। नरक चतुर्दशी इसलिए स्मरण कराती है कि श्रीकृष्ण जैसा प्रकाश हम सबके भीतर है — वह तभी प्रकट होगा जब हम अपने “असुर” को पहचानेंगे और उसका अंत करेंगे।

यही कारण है कि इस दिन *“अंधकार पर प्रकाश की विजय”* का आरंभ माना जाता है। यह बाहरी युद्ध नहीं, बल्कि आत्मा और अहंकार के बीच का अंतःयुद्ध है। नरक चतुर्दशी की सुबह “अभ्यंग स्नान” का विशेष विधान है। तेल स्नान, उषःकाल में उठना और शुद्ध वस्त्र धारण करना, केवल परंपरा नहीं, एक गहन आत्मसंस्कार हैं। तेल को शरीर पर मलना केवल सौंदर्य के लिए नहीं, बल्कि यह तन और मन दोनों की शिथिलता को दूर करता है। तेल, जो पृथ्वी तत्त्व का प्रतीक है, मनुष्य को स्थिरता देता है। जब वह स्नान करता है, तो शरीर के साथ-साथ मन की मलिनता भी धुलती है।

प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है —
*“स्नानं तपः प्रायश्चित्तं देहेनापि पावनम्।”*
अर्थात्, स्नान केवल शरीर की नहीं, आत्मा की भी पवित्रता है। नरक चतुर्दशी का अभ्यंग स्नान हमें याद दिलाता है कि *“जैसे जल शरीर की धूल धोता है, वैसे ही आत्मचिंतन मन की कालिख मिटाता है।”* कहा गया है कि “नरक बाहर नहीं, भीतर है।” हर मनुष्य अपने भीतर ही स्वर्ग और नरक का अनुभव करता है। जब मन अशांत, ईर्ष्यालु, असत्य या स्वार्थी होता है, तभी वह नरक में जीता है, भले ही राजमहल में क्यों न रहता हो।

नरक चतुर्दशी का संदेश यही है कि हमें अपने भीतर झाँकना चाहिए। पाँच अंधकार — क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या और अभिमान यही “नरक के पाँच द्वार” हैं। क्रोध मन की शांति को जलाता है, लोभ संतोष को निगल जाता है, मोह विवेक को ढँक देता है, ईर्ष्या दूसरों के सुख से अपना दुःख बनाती है और अभिमान हमें आत्मा से दूर कर देता है। इनसे मुक्ति ही नरकासुर-वध है। दीपावली से पहले इस दिन का यही प्रयोजन है कि हम आत्मचिंतन करें कि *“कौन-सा असुर मेरे भीतर जीवित है?”*

दीपक केवल मिट्टी और तेल का बना पात्र नहीं है; वह जीवन का प्रतीक है। तेल हमारी वासनाओं का प्रतीक है, बाती हमारे संकल्प का और अग्नि हमारी चेतना का। जब यह तीनों संतुलन में हों, तभी ज्योति स्थिर रहती है। नरक चतुर्दशी के दिन जब दीप जलता है, तो वह कहता है — *“मैं जलता हूँ, पर जलने से जग को उजियारा मिलता है।”* यह जीवन का आदर्श है। अंधकार को मिटाने का अर्थ उसे नकारना नहीं, बल्कि उसे समझना है। दीप जलाने से पहले हम अंधकार को स्वीकार करते हैं कि वह भी इस सृष्टि का एक हिस्सा है, लेकिन उसे प्रकाश में रूपांतरित करना हमारा कर्तव्य है।

दीप इस पर्व का नहीं, जीवन का प्रतीक है, जो यह सिखाता है कि *“प्रकाश भीतर से आता है, बाहर फैलता है।”* नरक चतुर्दशी केवल व्यक्तिगत साधना नहीं, पारिवारिक सामंजस्य का पर्व भी है। इस दिन प्रातः परिवार के सभी सदस्य एक साथ स्नान करते हैं, तेल मलते हैं और प्रसाद का वितरण होता है। यह केवल कर्मकांड नहीं, संवाद की परंपरा है। जब परिवार के सदस्य एक साथ स्नान, भोजन या दीपदान करते हैं, तो उनके बीच का स्नेह और अपनापन बढ़ता है। यह वह दिन है जब माता-पिता, संतानों को संस्कार देते हैं कि *“स्वच्छता केवल देह की नहीं, व्यवहार की भी रखो।”*

इस दिन दान के रूप में जैसे तेल, वस्त्र, अन्न या दीपदान देने का विशेष महत्व है। यह सब दूसरों के जीवन में प्रकाश बाँटने के माध्यम हैं। वास्तव में, दान वह दीप है जो सबसे अधिक उजियारा देता है। जब व्यक्ति अपने भीतर के अंधकार को जीत लेता है, तभी वह दीपोत्सव का वास्तविक आनंद ले सकता है। नरक चतुर्दशी का मूल भाव यही है कि ““भीतर के नरक को जीतकर बाहर की दीवाली का स्वागत करना।”* आत्मा में छिपा प्रकाश तभी प्रकट होता है जब अहंकार की परतें हटती हैं।

जो व्यक्ति अपने दोषों से संवाद कर उन्हें रूपांतरित करता है, वही दीवाली का सच्चा पात्र बनता है। क्योंकि दीवाली केवल दीपों का उत्सव नहीं, *“प्रकाश की चेतना”* का उत्सव है। नरक चतुर्दशी इस यात्रा का द्वार है या यह वह क्षण है जब मनुष्य अपने जीवन का पुनर्मूल्यांकन करता है। वह सोचता है कि *“मैं किस अंधकार में जी रहा हूँ? क्या मैं किसी के जीवन में प्रकाश बन पा रहा हूँ?”* यदि इन प्रश्नों का उत्तर ईमानदारी से दिया जाए, तो यही पर्व आत्मज्ञान की दीक्षा बन सकता है।

दीपावली का अर्थ केवल दीप जलाना नहीं, बल्कि उस दीप को भीतर अनुभव करना है। नरक चतुर्दशी का सन्देश बहुत सरल परंतु अत्यंत गहरा है — *“अंधकार से मत डरो, उसे पहचानो और उसमें ज्योति प्रज्वलित करो।”* प्रत्येक मनुष्य के जीवन में कभी न कभी निराशा, दुःख, असफलता या अपराध-बोध के रूप में अंधकार आता है। परंतु वही अंधकार हमें प्रकाश की आवश्यकता सिखाता है। यदि हम उसे अवसर मानें, तो हर संकट साधना बन सकता है।

नरक चतुर्दशी का पर्व हमें यह भी सिखाता है कि बाहरी स्वच्छता तभी सार्थक है, जब भीतर का मन स्वच्छ हो। जैसे दीपक का उजाला केवल तब स्थिर रहता है, जब हवा से बचाया जाए, वैसे ही मन की शांति तब बनी रहती है, जब हम उसे लोभ और ईर्ष्या से बचाएँ। इस दिन जब हम दीप जलाएँ, तो एक संकल्प लें कि *“मैं अपने भीतर के अंधकार को समाप्त करूँगा, मैं दूसरों के जीवन में प्रकाश बनूँगा।”* तभी यह पर्व “छोटी दीवाली” नहीं, बल्कि “महान आत्मदीपावली” बन जाएगी।

नरक चतुर्दशी हमें यह याद दिलाती है कि “नरक” केवल मृत्यु के बाद का स्थान नहीं, बल्कि वह स्थिति है जिसमें मनुष्य अपनी आत्मा से कट जाता है और “दीवाली” केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि वह अनुभव है जिसमें आत्मा और चेतना का मिलन होता है। जब हम भीतर के नरकासुर को जीतते हैं, तभी प्रकाश का उत्सव वास्तव में अर्थपूर्ण बनता है।

इसलिए कहा है –
*“जला दीप अपने अंतस में, मिटा अंधेरा मन का,*
*यही सच्चा पर्व है, यही दीपोत्सव जीवन का।”*

अत: नरक चतुर्दशी केवल बाहरी दीपों का उत्सव नहीं, बल्कि भीतर के अंधकार को पहचानकर उसे मिटाने और आत्मशुद्धि के माध्यम से प्रकाश फैलाने का पर्व है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि हमारे भीतर के लोभ, क्रोध, मोह, ईर्ष्या और अभिमान ही वास्तविक “नरकासुर” हैं, जिन्हें पहचानकर जीतना ही आत्मविजय है। अभ्यंग स्नान, दान और दीपदान जैसे कर्म केवल परंपरा नहीं, बल्कि आत्मसंस्कार और चेतना का प्रतीक हैं। जब हम अपने दोषों को रूपांतरित कर भीतर के अंधकार को समाप्त करते हैं, तभी दीपावली का सच्चा अर्थ प्रकट होता है यानी जीवन में प्रकाश, शांति और संतुलन का अनुभव होता है। इस प्रकार नरक चतुर्दशी हमें आत्मज्ञान, पारिवारिक सामंजस्य और जीवन में स्थायी उजियारा स्थापित करने की सीख देती है।

✍️ योगेश गहतोड़ी “यश”

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