
पूजा सिर्फ़ दीपक जलाना नहीं,
न ही घंटियों की आवाज़ में खो जाना है,
ये तो मन का निर्मल होना है,
और आत्मा से ईश्वर तक का जुड़ जाना है।
मंत्रोच्चारण से तक़दीर बदलती है या नहीं,
ये विश्वास का खेल है, तर्क का नहीं।
मंत्र तो मन को स्थिर करने का सहारा है,
सच्चा कर्म ही भाग्य का प्याला भरा है।
मंदिर में जाना, हाथ जोड़ना,
रुपयों से थाल सजाना—
यही पूजा नहीं है,
पूजा है—
किसी भूखे को अन्न खिलाना,
किसी रोते को हँसी दे जाना।
ईश्वर मूर्तियों में नहीं,
भक्त की नीयत में बसता है,
तक़दीर बदलती है कर्मों से,
मंत्र तो बस मन को दृढ़ करता है।
तो पूजा वही है,
जहाँ दिल साफ़ हो, नीयत उजली,
जहाँ अपने से पहले “दूसरे” को देखा जाए,
वहीं सच्चे ईश्वर की झलक मिलती है।
पूनम त्रिपाठी
गोरखपुर




