सम्पादकीय

राज्यपाल की टिप्पणी और बंगाल की सियासी सच्चाई

डाॅ.शिवेश्वर दत्त पाण्डेय

पश्चिम बंगाल एक बार फिर सुर्खियों में है। हाल ही में राष्ट्रपति से मुलाकात के बाद राज्यपाल ने राज्य की कानून-व्यवस्था पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि “राज्य में गुंडाराज चल रहा है” और ममता सरकार पूरी तरह बैकफुट पर है। यह बयान न केवल एक संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति की चिंता को दर्शाता है, बल्कि उस सच्चाई को भी उजागर करता है जिसे लंबे समय से आम नागरिक महसूस कर रहे हैं।

दरअसल, पश्चिम बंगाल पिछले कुछ वर्षों से राजनीतिक हिंसा, प्रशासनिक पक्षपात और अपराध की घटनाओं को लेकर चर्चा में रहा है। पंचायत चुनावों से लेकर लोकसभा और विधानसभा तक, अनेक अवसरों पर हिंसा, धमकी और दलगत टकराव की खबरें आती रही हैं। यह सब एक ऐसे राज्य में हो रहा है जो कभी अपने सांस्कृतिक वैभव, बुद्धिजीवी चेतना और राजनीतिक जागरूकता के लिए जाना जाता था।

राज्यपाल की टिप्पणी का राजनीतिक अर्थ भी गहरा है। संवैधानिक दृष्टि से राज्यपाल और मुख्यमंत्री को परस्पर सहयोगी की भूमिका निभानी चाहिए, न कि आमने-सामने खड़े होना चाहिए। लेकिन बंगाल में यह टकराव कोई नया नहीं है। इससे पहले भी राज्यपाल और ममता सरकार के बीच मतभेद सार्वजनिक रूप से सामने आते रहे हैं — चाहे वह विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति का मामला हो या प्रशासनिक निर्णयों पर सवाल। इस प्रकार की खींचतान न केवल शासन व्यवस्था को अस्थिर करती है बल्कि राज्य की जनता का विश्वास भी कमजोर करती है।

यदि राज्य में वास्तव में कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ी हुई है, तो यह केवल बयानबाजी का नहीं, ठोस कार्रवाई का विषय है। राज्य सरकार को यह समझना होगा कि जनता का भरोसा राजनीतिक बयान से नहीं, बल्कि न्यायसंगत प्रशासन और सुरक्षा से बनता है। वहीं, राज्यपाल को भी अपनी संवैधानिक सीमाओं में रहते हुए संवाद और सहयोग की राह अपनानी चाहिए, ताकि टकराव के बजाय समाधान का वातावरण बन सके।

भारत का संघीय ढांचा तभी मजबूत रह सकता है जब राज्यपाल और मुख्यमंत्री दोनों अपने दायित्वों का निर्वहन मर्यादा और पारदर्शिता के साथ करें। पश्चिम बंगाल जैसे राजनीतिक रूप से संवेदनशील राज्य में यह और भी आवश्यक है कि सरकार जनहित और कानून व्यवस्था को सर्वोच्च प्राथमिकता दे, ताकि “गुंडाराज” जैसी टिप्पणियाँ केवल आरोप न रह जाएँ, बल्कि इतिहास बन जाएँ।

राजनीति की गरिमा और प्रशासन की साख, दोनों तभी बची रह सकती हैं जब सत्ता जनता के प्रति जवाबदेह बने  न कि केवल सत्ता के अहंकार में डूबी रहे। यही समय है जब ममता सरकार को आत्ममंथन कर राज्य की शांति, विकास और लोकतांत्रिक मर्यादा की पुनर्स्थापना के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए।

डाॅ.शिवेश्वर दत्त पाण्डेय

समूह सम्पादक

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