साहित्य

साक्षात्कार साहित्यकार का:अंतरराष्ट्रीय साहित्यकार प्रदीप छाजेड़

प्रश्न १: आपके साहित्यिक जीवन की शुरुआत कैसे हुई?
उतर १- कहते हैं कि भगवान दुःख के साथ में सुख भी देता है ।
हमको जरूरत हैं उस समय समता , धैर्य आदि को शिरोधार्य कर
रहने की । ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ मेरे दोनों पांवो की बीमारी का दर्द ( जो मैं 6 महीने का था तब से यह बीमारी है ) फरवरी 2016 में आया था तो मेरे लेखक के आध्यात्मिक दिवंगत शिक्षक शासन श्री मुनि श्री पृथ्वीराज जी स्वामी ( श्री ड़ुंगरगढ़ ) साध्वी श्री कृतार्थ प्रभा जी ( समणी कंचन प्रज्ञा जी ह्युस्टन अमेरिका ) का मुझे लेखन में साथ मिला जो मेरे लेखन में सहभागी बने । वह इन दोनों की प्रेरणा से मेरे लेखन की शुरुआत अप्रैल 2016 में हुई ।
प्रश्न :२ लेखन की प्रेरणा आपको कहां से मिली?
उत्तर: मेरे प्रथम दिन तो हालत यह थी जैसे स्कूल में बच्चा पढ़ने को पहली बार जीवन में जाता हैं । रोज रोज यहाँ पर मुनि श्री की प्रेरणा सब तरफ से लिखने को मिलती रही लिख, लिख अपने पास बिठा कर लिखाना आदि – आदि जो 90 दिन तक लगातार मेरे से लिखावाए और सुदूर में साध्वी श्री कृतार्थ प्रभा जी ( समणी कंचन प्रज्ञा जी ह्युस्टन अमेरिका ) का बराबर प्रेरणा
देना का काम हुआ । मुनिवर मुझे यहाँ सदा फरमाते थे कि प्रदीप तेरे लेखन के हम दो गुरु हैं । ऐसे यह मेरा क्रम लिखने का चल पड़ा ।
प्रश्न:३ पहला लेखन का अनुभव कैसा रहा?
मेरे पहला लेखन का अनुभव भीतर में आनन्द देने वाला था । वह सभी के आशीर्वाद से यह कारवां बढ़ता गया जो बढ़ बढ़ जीवन में खुशियो का भीतर में उत्साह प्रेरणा उमंग संघर्ष आदि आदि भरता गया । वह मेरी पहली रचना, जिसने मेरी लेखन के लिए स्वीकृति की भावना जगाई, उस दिन आँखों में मेरे लिए जो गर्व और संतोष दिखा, वह मेरे लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं था। यह मेरी पहली स्वीकृति थी, मेरी पहली पहचान थी—और यह अहसास मुझे आज भी गर्व से भर देता है।
प्रश्न :४ किन साहित्यकारों या व्यक्तियों से आपने प्रेरणा ली?
32 आगम, पूर्ववर्ती आचार्यो, अन्य चरित्रात्माओं आदि की किताबों से स्वाध्याय कर मैं जो देखता सुनता हूं या पहले घटित घटनाओं को या सोशियल मीडिया पर आभासी मित्रों को पढ़ना और उनकी लेखनी पर अपनी काव्य को सोचना मुझे रोज़ नया लिखने को प्रेरित करता है। ये रोज़ पंक्तियां लिखना और पढ़ना बहुत सुखद है और मेरे जीवन का अंग बन गया है।
प्रश्न:५ आपके लेखन का मूल विषय क्या रहता है?
मेरे लेखन का मूल विषय आध्यात्मिक व्यवहार जगत पर लिखना ही हैं । मैं मेरे लेखन के सिद्धान्त के विपरीत एक शब्द भी नहीं लिखता हूँ । मेरा लेखन विभिन्न विषयों पर मेरे शिक्षकों के बतायें हुए सिद्धान्त से इसी क्रम में निरन्तर रहता हैं । मैंने कोई विशेष का अहं भाव मन में कभी नहीं जगाया हैं और नहीं रहेगा निरन्तर मेरा क्रम अभी भी शुरू में है वैसा ही चल रहा हैं । मैं तो लेखन में सिख – सिख कर ज्ञान प्राप्त कर अपने प्रयासों से ही ध्येय की ओर बढ़ रह हूं ‌।
प्रश्न:६ आप किन सामाजिक या मानवीय मुद्दों को अपने लेखन में प्रमुखता देते हैं?
उत्तर: मैं अपने लेखन के सिद्धान्त पर ही मेरा लेखन विभिन्न विषय पर लिखना पसंद करता हूं, उसके विपरीत मेरा लेखन नहीं होता हैं ।
प्रश्न:७ वर्तमान समय में साहित्य की भूमिका को आप कैसे देखते हैं?
उत्तर: साहित्यकार और साहित्य एक दूसरे के पूरक है । वह साहित्यकार अपने जीवन में चिन्तन की धारा को ला , उसको कलम से संजीवन दे , अपने आचरणों से सबके समक्ष एक आदर्श के रूप में होते हैं । वह लेखन की धारा से वह सतत् सबके मध्य गतिमान रहते हैं ।
प्रश्न:८ क्या साहित्य समाज को बदल सकता है या केवल उसका प्रतिबिंब भर है?
उत्तर: साहित्य ही समाज की सोच को बदल सकता है। शब्दों की धार तलवार की धार से भी तेज होती है जो पढ़ने वाले के मस्तिष्क पटल को भेदती हुए, सकारात्मक परिवर्तन का चिन्ह अंकित करती है । यह केवल मात्र प्रतिबिंब भर नहीं है ।
प्रश्न:९ आपकी रचनाओं में भाषा शैली की विशेषता क्या है?
उत्तर: मेरा सदैव ही यही प्रयास रहता हैं कि मैं मेरी रचना को मेरे आध्यात्मिक शिक्षकों के सिद्धान्त से लिख करने को प्रयास करता हूँ । मैं मेरी रचना सरल सहज भाषा का उपयोग कर लिख आध्यात्मिक संतुष्टि ले , रचना के काम को करने में प्रयासरत रहता हूँ । वह मेरे लेखन की भाषा हिन्दी हैं ।
प्रश्न:१० क्या आप परंपरागत भाषा प्रयोग के पत्थर हैं या आधुनिक प्रयोगधर्मी शैली के?
उत्तर: मेरी रचनाएं परंपरा और आधुनिकता के अद्भुत संतुलन का प्रतीक हैं, जहाँ शास्त्रीय भाषा की गरिमा में नवीन प्रयोगों की सजीवता झलकती है। वह लेखन के प्रति और लोगों के रुझान
भी स्वतः ही लेखन में जुड़े यह भी प्रयास मेरे लेखन से समाहित होते हैं ।
प्रश्न:११ पाठक वर्ग को ध्यान में रखकर आप अपनी भाषा चुनतें हैं या स्वाभाविक रूप से लिखतें हैं?
उत्तर: मैं अपने स्वाभाविक रूप से ही लेखन लिखने को पसन्द करता हूं किन्तु विषयानुसार लिखना हो तो पाठकों के अनुसार भी शब्दों का समावेश अपनी भावना को लेखन में अपने सिद्धान्त के साथ करने को मैं उत्सुक रहता हूं।
प्रश्न:१२ आज के समय में साहित्य किन चुनौतियों का सामना कर रहा है?
उत्तर: आज के समय में साहित्य के प्रति लोगों का रुझान खत्म हो रहा हैं । घरों में किताबों के धूल लग रही हैं । वह साहित्य मात्र कुछ गिने- चुनें का काम हो गया हैं । ऐसा नहीं हैं कि लोग बिल्कुल ही साहित्य को नहीं चाहते है वो ऐसी लिखी हुई चीज को पढ़ने में उत्सुक रहते हैं जहाँ लेखक की भावना खुली हो । वह लेखक का आचरण भी सही से उनको झलकता हों । साहित्य के प्रति साहित्यकार का योगदान भी अमूल्य रहता हैं । साहित्य व साहित्यकार दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । सही से समझ आगे की समस्याओं का समाधान कर चला जायें तो सभी चुनौतियों से सामना कर आगे बढ़ा जा सकता हैं ।
प्रश्न:१३ सोशल मीडिया और इंटरनेट युग में साहित्य की स्थिति को आप कैसे आँकते हैं?
उत्तर: सोशल मीडिया के द्वारा ही तो मैं विश्व में चल पा रहा हूँ और मुझे स्थापित करने में सोशल मीडिया के योगदान को मैं कम नहीं ले सकता हूँ । सोशल मीडिया ने सुदूर ह्युस्टन अमेरिका से लेखक के मेरे आध्यात्मिक शिक्षक से मेरा चलना करवाया और विश्वस्तरीय हजारों – हजारों मुझे मंच प्रदान किए हैं, कोरोना काल में डिजिटल मीडिया इंटरनेट आदि का भी खूब खूब सहारा लिया था ।
प्रश्न:१४ क्या आज के युवा लेखको में रचनात्मक और संवेदना पहले जैसी है?
उत्तर: युवाओं में रचनात्मक और संवेदना आदि पहले से भी बेहतर जगी है क्योंकि आज गूगल के जमाने में पहले की अपेक्षा अधिक जानकारी भी उपलब्ध हैं और शब्दों के चयन के लिए उपयुक्त सहायता भी मिलती है जिससे लेखको में पारदर्शिता
रहती हैं । वह युवा लेखक पूर्ण संतुष्टि से कार्य करते हैं ।
प्रश्न:१५ पुरस्कारों और सम्मान की राजनीति पर आपका क्या दृष्टिकोण है?
उत्तर: मुझे मेरे लेखन में कोई प्रसन्नसा करें तो अच्छी नहीं लगती हैं । लेखन में कमी मेरे को कोई बतायें तो मुझे वह अच्छी लगती हैं । पुरस्कार और सम्मान प्राप्त करना मेरे चिन्तन के विषय नहीं हैं । मुझे मेरा काम जितना हो सके उतना ज्यादा सुन्दर करना हैं यह मेरा ध्येय हैं । किसी को भी सम्मान उसके अपने अच्छे कार्यों से ही मिलता हैं । वह आचरण कार्यों के प्रति अच्छा हो तो पुरस्कार की अपेक्षा भी नहीं रहती हैं । पुरस्कार और सम्मान पर सही दृष्टिकोण सदैव कायम रहें ।
प्रश्न :१६ क्या आज का लेखक अपने पाठक से जुड़ पा रहा है?
उत्तर: लेखक अपने पाठक के साथ में सदैव ही जुड़ा रहता हैं ।
जरूरी नहीं हैं कि वह केवल उसके साथ संचार आदि माध्यम से जुड़ा हों बल्कि उसके साथ वह भावना आदि से भी जुड़ा रहता हैं। जो मैंने वर्षों वर्षों में अपने पाठकों के साथ में अनुभव किया हैं । डिजिटल माध्यम से एक दूसरे के समक्ष एक दूसरे का सवाल जवाब भी कर लेते हैं जो की सकारात्मक बदलाव है।
प्रश्न:१७ प्रकाशन जगत में नए लेखकों को क्या कठिनाइयां हैं?
उत्तर: प्रकाशन जगत में नए लेखकों को अब सुविधा भी अच्छी मिल रही है लेकिन चुनौतियाँ भी उनके समक्ष उत्कृष्ट करने की बनी रहती हैं । वह यह चुनौति ही उनको आगे से आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करती रहती हैं ।
प्रश्न:१८ क्या व्यवसायिकता ने साहित्य की आत्मा को प्रभावित किया है?
उत्तर: व्यवसायिकता का साहित्य के क्षेत्र में हम सही से सुंदर
चिन्तन को ले चलें तो यह सही भी होगा । आज के समय में बिना अर्थ के कोई कार्य होता नहीं हैं । अतः साहित्य के साथ में
सही से तारतम्य बना कर रखा जायें तो सही से कार्य होते हैं।वह साहित्य की आत्मा भी प्रभावित नहीं होगी ।
प्रश्न:१९ आप आज के समाज में साहित्य की उपयोगिता को कैसे परिभाषित करती है?
आज के समाज में साहित्य की उपयोगिता को कम नहीं आंका जा सकता हैं । साहित्य केवल शब्दों का संयोजन नहीं हैं बल्कि यह हमारे विकास में योगभूत हैं । भगवान् महावीर की वाणी हमारे समक्ष साहित्य के माध्यम से ही उपलब्ध हैं । वह साहित्य के माध्यम से ही मैं लेखन का कार्य नियमित कर पा रहा हूँ । समाज के मन का दर्पण साहित्य ही है। इसमें समय, संस्कृति, परंपराएं, मानवीय भावनाएं, संवेदनाएं और जीवन मूल्यों आदि की झलक मिलती है। साहित्य ही वह माध्यम है जो हमें हमारी जड़ों से जोड़े रखता है । हमारी वेशभूषा, भाषा, रीतिरिवाज, लोककथाएं, पर्व-त्योहार और नैतिक मूल्यों आदि को जीवित साहित्य रखता है। साहित्य मनुष्य को मानव बनाए रखने की सबसे प्रभावी साधना है, जो हृदय में करुणा, विचारों में विस्तार, और जीवन में सौंदर्य का भाव जगाती है। अतः साहित्य की उपयोगिता को कैसे ही हमारे द्वारा परिभाषित किया जा सकता है ।
प्रश्न:२० आपके लेखन दिनचर्या कैसी है?
उत्तर: मैं नियमित गद्य , पद्य आदि में लिखने का प्रयास करता हूँ । वह मैं अपने आसपास देखता सुनता या समझता हूं , उसी को ही महसूस करता हूं । वह स्वाध्याय आदि कर मैं मेरे लेखन को
सही भावों से शब्दों में पिरोकर उकेरने को प्रयासरत रहता हूं ।
प्रश्न:२१ क्या आप किसी विशेष वातावरण या समय में लिखना पसंद करता हैं?
उत्तर: ऐसा कुछ भी नहीं हैं । मैं कभी भी व कहीं भी लिख सकता हूं, हां ! मुझे लेखन के लिए एकांत , शांति सबसे प्रिय लगता हैं । मेरे भाव‌ मुझे नींद से भी जगाकर लिखने को प्रेरित करते हैं ।
प्रश्न:२२ लेखन में आने वाले और उद्योगों से आप कैसे समय निकालते हैं?
उत्तर: मेरे मश्तिष्क की उर्वरा भूमि पर जब भी विचार आते हैं उनको मैं नोट कर लेता हूं और समय मिलते ही उस पर अपनी भावनाओं को व्यक्त कर लेखन में लिख करता हूं। वह अपने कार्य को पूर्ण करता रहता हूँ ।
प्रश्न :२३ क्या आप अपने लेखन में अपने अनुभव का प्रयोग करती हैं?
उत्तर: मैं मेरे लेखन में अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं को जोड़ सच्चो घटना जीवन के अनुभव की लेता हूं ।
प्रश्न:२४ आने वाले समय में आपके कौन-कौन से साहित्यिक प्रोजेक्ट है या पुस्तकें प्रस्तावित है?
उत्तर: मुझे मेरे लेखन के आध्यात्मिक दिवंगत शिक्षक शासन श्री मुनि श्री पृथ्वीराज जी स्वामी ( श्री ड़ुंगरगढ़ ) के द्वारा बनायी हुई पूरी सुन्दर सुदृढ़ विश्वव्यापी योजना से अपने साहित्य के पूरे काम को ही दूसरे आध्यात्मिक शिक्षक साध्वी श्री कृतार्थ प्रभा जी ( समणी कंचन प्रज्ञा जी ह्युस्टन अमेरिका में थे ) के द्वारा प्राप्त मार्गदर्शन से पंख ले आगे बढ़ना हैं । दोनों मेरे लेखक के आध्यात्मिक शिक्षक व अन्यों के आशीर्वाद से मेरे कार्य को उच्चाइयाँ भी सभी कार्य करते हुए देना हैं ।
प्रश्न:२५ नई पीढ़ी के लेखकों को आप क्या संदेश देना चाहेंगें?
उत्तर: सुनों सभी की करों अपने मन की । वह मन में जो अच्छा लगे वो लेखन में करते जायें । वह अपने भाव को लेखन के माध्यम से निरन्तर हम गतिमान करते रहे यह सबसे महत्वपूर्ण हैं । हमारी लेखन से स्वयं की संतुष्टि ही सही माध्यम होती हैं । वह अपने चिन्तन का स्तर यह नहीं रहें कि मेरे लेखन को कितनों ने पसन्द किया , वह सम्मान, पुरस्कार आदि कितने हैं । हमको
विचारों के नए क्षितिज खोलना हैं, जो शब्दों में संवेदना, साहस और दृष्टि आदि को समेटे रहे। आज के समय में लेखन केवल अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि एक ज़िम्मेदारी भी है। आप जो लिखते हैं, वह आने वाली पीढ़ियों की सोच और समाज की दिशा भी तय करता है। लेखन एक साधना है, इसमें न तो त्वरित प्रसिद्धि का लोभ होना चाहिए, न किसी की नकल का आकर्षण आदि – आदि । अपने अनुभवों से, अपनी मिट्टी से, अपनी भाषा और संस्कृति से जुड़कर हम लिखते रहें। वह साहित्य तभी सशक्त बनता है जब उसमें मनुष्य और मनुष्यता की गंध होती है। हम जितना पढ़ेंगे, उतना लिखना हमारा ज्यादा से ज्यादा निखरेगा। हम पुराने और नए दोनों लेखकों की कृतियों से सदा सिखतें रहें । हम आलोचना से न घबराएँ, वह ही हमारी सबसे बड़ी शिक्षक होती है। हम अपनी भाषा में शुद्ध, सुंदर और प्रभावी लिखने का प्रयास करते रहें समय के साथ चलें, लेकिन अपनी जड़ या मूल संवेदनशीलता आदि को कभी न छोड़ें। हमारी कलम ही हमारी पहचान बने, हमारी सोच आगे से आगे समाज को नई दृष्टि दे।हमारी रचनाएँ केवल शब्दों का संकलन न हों, बल्कि उन भावनाओं का भी वह दर्पण बनें जो इंसान को इंसान बनाती हैं। शब्दों को अर्थ तभी मिलते हैं,जब वे हृदय की सच्चाई से जन्म लें।
प्रश्न:२६ क्या साहित्य आज भी समाज के बदलाव लाने की ताकत रखता है?
उत्तर: साहित्य सदैव समाज में बदलाव लाने की ताकत रखता हैं । ये कलम भी कमाल करती है । यह सही हाथ लगे तो मिसाल बनती है, गलत हाथ लगे तो जंजाल बनती हैं । इसकी तलवार से भी तेज धार है, जो लग जाये तो ज़िंदा हलाल करती है । वह
साथ दे तो मालामाल करती है, मुँह मोड़ ले तो कंगाल करती है,
बड़े – बड़े सिर झुकाते है इसके आगे, जो ठान ले तो जीना मुहाल कर देती है । अतः – जिसकी ताकत को कोई नकार ना सके वो कलम हैं, हर अन्याय के खिलाफ जो हुंकार भरे वो कलम हैं,
जो सिर्फ सच्चाई को स्वीकार करे वो कलम हैं। यह प्रेरणा आज भी प्रत्येक रचनाकार की लेखनी में विद्यमान है।
मेरी एक रचना –

भगवान महावीर
प्रसिद्ध दार्शनिक देकार्ट ने कहा – मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ । मेरे अस्तित्व का प्रमाण हैं कि मैं सोचता हूं और सोचता हूं इसलिए मैं हूं । यदि मुझे कहना पड़े तो मैं इस तर्क की भाषा में कहूँगा- मैं हूं और विकसित मस्तिष्क वाला प्राणी हूँ इसलिए सोचता हूँ । सोचना मस्तिष्क का लक्षण नहीं हैं । सोचना एक अभिव्यक्ति हैं । वह लक्षण नहीं बन सकता । हमारा अस्तित्व और चैतन्य चिंतन से परे हैं , सोचने से परे हैं । सोचना ज्योति का एक स्फुलिंग मात्र हैं , समग्र ज्योति नहीं हैं । न सोचना यह ज्योति का अखंड रूप हैं । निरभ्र नील गगन । शान्त, नीरव वातावरण । रात्रि का पश्चिम प्रहर । महाराज सिद्धार्थ का भव्य प्रासाद । वासगृह का मध्य भाग । सुरभि पुष्प और सुरभि चूर्ण की महक । मृदु- शय्या । अर्द्धनिद्रावस्था में सुप्त देवी त्रिशला ने एक स्वप्न श्रृंखला देखी । त्रिशला जागी उसका मन उल्लास से भर गया । उसे अपने स्वप्नों पर आश्चर्य हो रहा था । आज तक
उसने इतने महत्वपूर्ण स्वप्न कभी नहीं देखे थें । वह महाराज सिद्धार्थ के पास गईं । उन्हें अपने स्वप्नो की बात सुनाईं । सिद्धार्थ हर्ष और विस्मय से आरक्त हों गया । सिद्धार्थ ने स्वप्न- पाठकों को आमंत्रित किया । उन्होंने स्वप्नो का अध्ययन कर कहा – महाराज ! देवी के पुत्र- रत्न होगा । ये स्वप्न उसके धर्म- चक्रव्रती होने की सूचना दे रहें हैं । महाराज ने प्रतिदान दें स्वप्न- पाठकों को विदा किया । सब दिशाएं सौम्य और आलोक से पूर्ण हैं । वासन्ती पवन मंद-मंद गति से प्रवाहित हों रहा हैं ।
पुष्पित उपवन वसन्त के अस्तित्व की उद्घोषणा कर रहें हैं ।
जलाशय प्रसन्न हैं । प्रफुल्ल हैं भूमि और आकाश । धान्य की समृद्धि से समूचा जनपद हर्ष- विभोर हों उठा हैं । इस प्रसन्न
वातावरण में चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की मध्यरात्रि को एक शिशु ने जन्म लिया । वह शिशु भगवान् महावीर के रूप में प्रख्यात हुआ । यह विक्रम पूर्व 542 और ईसा पूर्व 599 की घटना हैं । जनपद का नाम विदेह । नगर का नाम क्षत्रियकुण्ड । पिता का नाम सिद्धार्थ । माता का नाम त्रिशला । कहते हैं कि जिनका अंतःकरण जागृत होता हैं, वे सोते हुए भी जागते हैं । भगवान् महावीर सतत् जागृति की कक्षा में पहुंच चुके थें । गर्भकाल में ही उन्हें अतीन्द्रिय ज्ञान उपलब्ध था । उनका अंत:करण निसर्ग चेतना के आलोक से आलोकित था । भोग और ऐश्वर्य उनके पीछे- पीछे चल रहें थें , पर वे उनके पीछे नहीं चल रहे थे । भगवान ने कहा मैं अनुभव कर रहा हूँ कि यह मेरा जन्म हिंसा का प्रायश्चित करने के लिए ही हुआ हैं । मेरी सारी रुचि, सारी श्रद्धा, सारी भावना अहिंसा की आराधना में लग रही हैं । उसके लिए मैं जो कुछ कर सकता हूं , करूंगा । मेरे प्राण तड़प रहें हैं उसकी सिद्धि के लिए । मैं चाहता हूं कि वह दिन शीघ्र आए जिस दिन मैं अहिंसा से अभिन्न हो जाऊं , किसी जीव को कष्ट न पहुंचाऊं । जीवन में साधना करते – करते एक दिन भगवान महावीर जंभिग्राम के बाहरी भाग में ऋजुबालिका नदी के उत्तरी तट पर जीर्ण चैत्य का ईशानकोण में श्यामाक गृहपति का खेत वहाँ शालवृक्ष के नीचे अपूर्व आभा का अनुभव करने लगे । उन्हें सूर्योदय का आभास हो रहा हैं । ऐसा प्रतीत हो रहा हैं कि अस्तित्व पर पड़ा हुआ परदा अब फटने को तैयार हैं । भगवान गोदोहिका आसन में बैठे हैं । दो दिन का उपवास हैं । सूर्य का आतप ले रहें हैं । शुक्लध्यान की अंतरिका में वर्तमान हैं । ध्यान की श्रेणी का आरोहण करते- करते अनावरण हो गए । कैवल्य का सूर्य सदा के लिए उदित हो गया । वैशाख शुक्ला दशमी का दिन चौथा प्रहर विजय मुहूर्त चंद्रमा के साथ उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र का योग इन्ही क्षणों में कैवल्य का सूर्योदय हुआ । भगवान् अब केवली हो गए- सर्वज्ञ और सर्वदर्शी । उनमें सब द्रव्यों और सब पर्यायों को जानने की क्षमता उत्पन्न हो गईं । भगवान् महावीर साधु- साध्वी और श्रावक- श्राविका- इस तीर्थ- चतुष्टय की स्थापना कर तीर्थंकर हो गए । इससे पहले
भगवान् व्यक्ति थे और व्यक्तिगत जीवन जीते थे , अब भगवान संघ बन गए और उनके संघीय जीवन का सिंहद्वार खुल गया ।
भगवान महावीर पुरुषोत्तम थे । उनकी पुरुषोत्तमता उन सबके सामने हैं जो अहिंसा में आस्था रखतें हैं । भगवान महावीर का जीवन दीर्घ तपस्वी का जीवन हैं।उनका पूर्ण समग्र दर्शन लिखना सम्भव नहीं हैं, किंतु जो दर्शन हैं, वह महावीर के जीवन को स्पर्श करने वाला हैं । भगवान महावीर का अभय अनंत था, पराक्रम अदम्य और सत्य असीम था । इसलिए वे अहिंसक थे । वे अहिंसा की साधना में सतत संलग्न रहें, इसलिए उन्होंने कहा- जो मौन हैं , वह सत्य हैं और जो सत्य हैं, वह मौन हैं ।सत्य – जिज्ञासु के लिए भगवान का जीवन – दर्शन महान समृद्धि- पथ हैं । महावीर को पढ़ना अपने जीवन की कल्याण गाथाएं पढ़ना हैं और महावीर को पाना अपने आपको पाना हैं । आचार्य श्री तुलसी के शब्दों में – इस असंयम- बहुल युग में महावीर को प्रस्तुत करने का अर्थ संयम को पुनर्जीवित करना हैं । हर नया सूरज नए विकास का साक्षी बनकर ही गगनांगण में उदित होता हैं । भगवान महावीर का जीवन- चरित्र अध्यात्म की जीवंत कहानी हैं । उसे पढ़ कर सहिष्णुता, ध्यानशीलता और ज्ञानशीलता आदि को अपने जीवन में शिरोधार्य किया जा सकता हैं । प्रणम्य वह होता हैं जो अपने जीवन में अनुत्तर उपलब्धि करता हैं । भगवान महावीर ने साधना का पथ लिया । उस पर चलते हुए उन्होंने असह्य कष्ट सहन किए । उनकी जीवनगाथा सुनने और पढ़ने वाले रोमांचित हो जाते हैं । शूलपाणि यक्ष ने एक रात में उनको भयंकर कष्ट दिए। भगवान महावीर ने प्रतिकारात्मक संवेदन किए बिना उन कष्टों को सहन कर लिया । उस रात उनको थोड़ी देर नींद आई। उस समय उन्होंने दस स्वप्न देखें । यह प्रसंग जितना प्रेरक हैं, उतना ही विलक्षण हैं । भगवान महावीर के जीवन प्रसंग का साक्षात्कार कर उनके प्रति सहज ही श्रद्धावनत हो जाएंगे, ऐसा विश्वास हैं ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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