साक्षात्कार साहित्यकार का:डॉ अंजना मुवेल

आपके साहित्यिक जीवन की शुरुआत कैसे हुई ?
बचपन से ही लेखन की शुरुआत कह सकती हूं। उन दिनों कवि सम्मेलन हुआ करते थे और मेरे माता-पिता कवि सम्मेलन में जाया करते थे। उनके साथ कवि सम्मेलन सुनना बहुत अच्छा लगता था और तब स्कूल में स्वरचित कविता पाठ तथा अधूरी कहानी पूरी करो प्रतियोगिताएं होती थी जिसमें मैं भाग लिया करती थी । बस, यही से लेखन की शुरुआत हुई ।

लेखन की प्रेरणा आपको कहां से मिली ?
बताया ना, जब कवि सम्मेलन सुनकर आते थे तब अपने आसपास के वातावरण को देखकर या किसी पात्र को देखकर कविता बन जाया करती थी। जैसे निकट का स्थान जहां हम बचपन में पिकनिक के लिए जाया करते थे देवझिरी । उस देवझिरी के पहाड़ और उसकी यात्रा पर कुछ पंक्तियां लिखी थी ।फिर हमारा पालतू गली का कुत्ता, तोता ऐसे पशु पक्षियो पर भी कविता लिखी ।
पहला अनुभव कैसा रहा ?
लिखने का या प्रकाशन का ?
.…… लिखने का अनुभव तो बहुत अच्छा लगता था बचपन में । जब भी कोई कविता लिखती तो बहुत प्रसन्नता होती कि मैंने भी कविता लिखी है। और उसके सबसे पहले श्रोता थे मेरे पिताजी । जैसे ही वह साझ को आते दरवाजे में अंदर आने से पहले मैं उन्हें अपनी कविता सुनाती और वह प्रसन्नता के साथ मेरी प्रशंसा करते कि बहुत अच्छी है और मैं खुश हो जाती कि मैं भी कवि सम्मेलन के कवियों की तरह कविता लिख सकती हूं।
किन साहित्यकारो या व्यक्तित्वों से आपने प्रेरणा अपने ली ?
बस, कहा ना ! इसी तरह कवि सम्मेलन सुनते सुनते कविताएं लिख गई और फिर कहानियो का क्रम प्रारंभ हो गया । ऐसा किसी व्यक्ति या साहित्यकार को देखकर मन नहीं हुआ कि मैं लिखूं । यह ईश्वर की प्रेरणा होगी जो स्वत लेखन शुरू हो गया ।
आपके लेखन का मूल विषय या केंद्र क्या है ?
यह तो पाठक पढ़ कर बता सकते हैं । वैसे प्रकृति और आसपास का साधारण जन सामान्य का जीवन चरित्र और उनकी समस्याओं पर कलम चल जाती है ।
आप किन सामाजिक या मानवीय मुद्दों को अपने लेखन में प्रमुखता देते हैं ?
मैं तो लिखने के लिए अलग से कुछ विशेष सोचती नहीं हूं । मन का चिंतन और कोई विचार मन मस्तिष्क में चलता रहता है अपने आप कागज पर शब्द बनकर उतर जाता है। या कहू कि जब तक लिखूं नहीं तब तक मस्तिष्क में, मन में कहीं घूमता ही रहता है ।
वर्तमान में साहित्य की भूमिका को आप कैसे देखते हैं ?
साहित्य तो सदैव से साहित्य ही रहा है। लेकिन वर्तमान में साहित्य की भूमिका मुझे लगता है थोड़ी सी कहीं बदली है। आज साहित्य से पहले सोशल मीडिया और इंटरनेट प्रभावी माध्यम है जो मनुष्य को; उसकी दिनचर्या को; उसकी जीवन शैली को प्रभावित और परिवर्तित करते हैं। जहां साहित्य प्रथम पंक्ति पर था वहां आज द्वितीय पंक्ति पर दिखाई पड़ता है ।
क्या साहित्य समाज को बादल सकता है या केवल उसका प्रतिबिंब भर है
वर्तमान समय को देखा जाए तो लगता है समाज को बदलने की शक्ति जो साहित्य में थी वह आज के साहित्य में कम दिखाई पड़ती है। साहित्य समाज का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है ।
आपकी रचनाओं में भाषा और शैली की विशिष्टता क्या है?
मेरी रचनाओं की भाषा और शैली की विशेषताएं क्या बताऊं। इस प्रश्न का उत्तर तो पाठक वृन्द ही दे सकते हैं।
क्या आप परंपरागत भाषा प्रयोग के पक्षधर हैं या आधुनिक प्रयोगधर्मी शैली के ?
आधुनिकता के पक्षधर तो हैं लेकिन जब तक ही कि जब वह परंपरागत भाषा के साथ उसकी रक्षा भी करती रहे। आधुनिकता का प्रभाव यदि पूरी तरह से परंपरागत भाषा को समाप्त कर रही है तो वह ठीक बात नहीं है।
पाठक वर्ग को देखकर अपनी भाषा चुनते हैं या स्वाभाविक रूप से लिखते हैं ?
ऊपर ही प्रश्नों के जवाब में मैंने बताया था ना की जो मन मस्तिष्क में चलता है वही मै लिख पाती हूं या कहा जाय स्वान्त: सुखाय साहित्य में कहा जाता है बस वही लेखन है मेरा।
आज के समय में साहित्य किन चुनौतियों का सामना कर रहा है ?
आज के समय में साहित्य के समक्ष कई चुनौतियां ही चुनौतियां हैं । साहित्य की तीन विधाएं होती हैं दृश्य , श्रव्य और श्रवण। वर्तमान समय में सोशल मीडिया और प्रत्येक हाथ में मोबाइल ने इन तीनों विधाओं की कमी को क्षण भर में पूरी कर देता है । साहित्य की सभी विधाएं सोशल मीडिया में ही समाहित हो गई है। इसलिए यदि हम कहें कि अलग से अब कोई कागज कलम से लिखे और पढ़े यह वर्तमान के लेखन में दिखाई नहीं पड़ता ।
सोशल मीडिया और इंटरनेट के युग में साहित्य की स्थिति को आप कैसे आकते हैं ?
वही जो अभी मैंने कहा साहित्य सोशल मीडिया और इंटरनेट में समाहित होता जा रहा है । परंपरागत तरीके से लेखन और पठन परंपरा विलुप्त होने की कगार पर है । आज हम देखते हैं हमारा पुराना साहित्य सोशल मीडिया पर ऑडियो बुक के रूप में उपलब्ध हो रहा है। ऐसी स्थिति में पठन-पाठन पुरानी तरह ही चले ऐसा लगता नहीं है। पाठक पढ़ने के अपेक्षा सुनना ज्यादा पसंद करते हैं।
क्या आज के युवा लेखकों में रचनात्मक और संवेदना पहले जैसी है ?
रचनात्मक और संवेदना दोनों ही अलग-अलग भाव है। संवेदना तो स्वाभाविक ही स्वभाव की गति है जो लेखक को प्रभावित करती है उसके मनोभावों को छुती है तब ही वह लिख पाता है हां, रचनात्मकता के लिए कहा जा सकता है कि पहले लेखक लेखन के प्रति अधिक गंभीर हुआ करते थे। आज की स्थिति में देखें तो लेखक शीघ्राती शीघ्र लिखकर प्रसिद्धि पाना चाहते हैं।
पुरस्कारो तथा सम्मान की राजनीति पर आपका क्या दृष्टिकोण है ?
देखिए, पुरस्कार और सम्मान को राजनीति से दूर ही रखा जाए तो अच्छी बात है । जहां पुरस्कार और सम्मान उत्कृष्ट साहित्य को न देकर व्यक्ति विशेष को दिया जाएगा तो लेखन तो प्रभावित होगा ही। कहीं-कहीं अवश्य ऐसा हुआ होगा लेकिन हमेशा ही ऐसा होता है ऐसा नहीं कहा जा सकता।
क्या आज का लेखक अपने पाठक से जुड़ पा रहा है?
आजकल पाठकों की कमी हो गई है। यह सही बात है व्यक्ति के पास समय ही नहीं है तो वह पढेगा कब ? सोशल मीडिया ने व्यक्ति के समय को समाप्त ही कर दिया है। ऐसी स्थिति में लेखक और पाठक का रिश्ता प्रभावित हुआ है। अलमारी में किताबें बंद रह जाती है। यह बहुत चिंता का विषय है।



