
भारतीय संस्कृति की सबसे सुंदर विशेषता यह है कि यहाँ त्योहार केवल उत्सव नहीं, बल्कि जीवन मूल्यों की पुनर्स्मृति हैं। करवाचौथ भी ऐसा ही पर्व है — जहाँ चंद्रमा की शीतलता, सुहागिन स्त्रियों की आस्था और पारिवारिक प्रेम का उजास एक साथ झिलमिलाता है।
करवाचौथ का व्रत केवल पति की दीर्घायु की कामना का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह नारी के आत्मबल, त्याग और अटूट विश्वास का उत्सव है। सूर्योदय से लेकर चंद्रोदय तक बिना अन्न-जल ग्रहण किए उपवास रखना, दिनभर सजधजकर भगवान शिव, माता पार्वती और गणेश की आराधना करना — यह सब उस अदृश्य प्रेम के सूत्र को और प्रगाढ़ बनाता है, जो विवाह को केवल सामाजिक अनुबंध नहीं, बल्कि आध्यात्मिक बंधन बनाता है।
समय के साथ इस पर्व की परंपराएँ बदली हैं। आज अनेक घरों में पति-पत्नी दोनों एक-दूसरे के लिए व्रत रखते हैं। यह बदलाव समाज की समानता और सहअस्तित्व की नई चेतना का प्रतीक है। प्रेम का अर्थ केवल किसी एक के त्याग से नहीं, बल्कि दोनों के परस्पर सम्मान से है। यह दृष्टिकोण हमारी संस्कृति की मूल भावना — “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” — को और सशक्त बनाता है।
फिर भी, करवाचौथ जैसे त्योहारों का वास्तविक सौंदर्य तभी जीवित रहेगा, जब हम इसके मूल भाव – निष्ठा, संयम और स्नेह को समझेंगे, न कि केवल उसके बाहरी प्रदर्शन को। सजावट, आभूषण या सोशल मीडिया की तस्वीरें इस पर्व का सार नहीं हैं; सार है वह सच्ची प्रार्थना, जो हर नारी अपने परिवार के कल्याण के लिए करती है।
आज जब जीवन की गति अत्यधिक भौतिक और व्यस्त हो चुकी है, करवाचौथ हमें ठहरकर यह सोचने का अवसर देता है कि संबंध केवल सुविधा से नहीं, विश्वास और समर्पण से जीवित रहते हैं।
यह पर्व हमें सिखाता है कि प्रेम, धैर्य और त्याग ही किसी भी रिश्ते की जड़ें हैं — और इन्हीं से समाज की नींव मज़बूत होती है।
करवाचौथ का चाँद हर वर्ष यही संदेश लेकर आता है
कि विश्वास की रोशनी में ही जीवन का सच्चा उजाला है।
मातृ शक्ति को करवाचौथ की हार्दिक शुभकामनाएं।
डाॅ.शिवेश्वर दत्त पाण्डेय
समूह सम्पादक


