
सांझ-सवेरे भोले बोलूं,
और जीवन में रस घोलूं,
कैसी चिंता जीवन-मरण की,
जो मैं नाम भोले का बोलूं।
सांझ-सवेरे भोले …
नही रही कोई भी विपदा,
जब भोले का साथ रहा,
मन की मैंने सारी कर ली,
बस भोले का ध्यान रहा।
सांझ-सवेरे भोले…
भोले तो हर पथ पर मेरा,
संबल बन कर चलते हैं,
जब-भी मैं थोड़ा रुक जाता,
हांथ पकड़ भोले चलते हैं।
सांझ-सवेरे भोले …
देर भले हो जाती है,
अंधेर नहीं हो पाती है,
साथ पकड़ लो जो भोले का,
गाड़ी चलती जाती है।
सांझ-सवेरे भोले ….
जीवन हर इंसा को मिलता,
पर भोले का भाग नहीं,
कर्म की चकरी ही तो एक है,
भोले से मिलवाती है।
सांझ-सवरे भोले …
(237/293 वां मनका)
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कार्तिकेय कुमार त्रिपाठी ‘राम’
गांधीनगर, इन्दौर (म.प्र.)




