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शरद पूर्णिमा: १६ चन्द्र कलाएँ एवं महारास

आचार्य ​संजीव​ वर्मा​ 'सलिल'

शरद पूर्णिमा: १६ चन्द्र कलाएँ एवं महारासशरद पूर्णिमा: १६ चन्द्र कलाएँ एवं महारास
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सॉनेट
शरत्चंद्र
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शरत्चंद्र की शुक्ल स्मृति से
मन नीलाभ गगन हो हँसता
रश्मिरथी दे अमृत, झट से
कंकर हो शंकर भुज कसता
सलज उमा, गणपति आहट पा
मग्न साधना में हो जाती
ऋद्धि-सिद्धि माँ की चौखट आ
शीश नवा, माँ के जस गाती
हो संजीव, सलिल लहरें उठ
गौरी पग छू सकुँच ठिठकती
अंजुरी भर कर पान उमा झुक
शिव को भिगा रिझाकर हँसती
शुक्ल स्मृति पायस सब जग को
दे अमृत कण शरत्चंद्र का

(शेक्सपियरी शैली)
९-१०-२०२२, १५-४३
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शरत पूर्णिमा का महापर्व वास्तव में ‘श्री’ प्राप्ति हित किया जानेवाला व्रत है। श्री का अर्थ सुख-समृद्धि-संतोष-सफलता और सायुज्य प्राप्ति से है। तदनुसार चंद्रमा की आराधना इसलिए की उपयुक्त है कि चंद्रमा सोलह कलाओं से युक्त अमृत का पर्याय और मन का स्वामी है। निम्न श्लोक विभिन्न वेदों और उपनिषदों में मिलता है, जैसे ऋग्वेद १०/९०/१३, यजुर्वेद ३१/१२ और अथर्ववेद १९/६ आदि।

चन्द्रमा मनसो जाताश्चक्षो सूर्यो अजायत।
श्रोत्रांवायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत।।

शरत पूर्णिमा का महापर्व ‘कोजागरी पूनम’ के नाम से भी जाना जाता है। यह त्योहार आश्विन शुक्ल १५ पूर्णिमा को मनाया जाता है। लोक मान्यता है कि इस दिनधन की देवी लक्ष्मी रात्रि में आकाश में विचरण करती हैं और नीचे जाग रहे लोगों को ढूँढ़ती हुई ‘को जागर्ति’ पूछती हैं। संस्कृत में, ‘को जागर्ति’ का अर्थ है, ‘कौन जाग रहा है?’ और जो जाग रहे हैं उन्हें वह धन का उपहार देती हैं।

सनत्कुमार संहिता में कोजागरी पूनम की कथा में वालखिल ऋषि बताते हैं कि प्राचीन काल में मगधदेश (बंगाल) में वलित नामक एक दीन ब्राह्मण रहता था। वह विद्वान और सदाचारी था किंतु उसकी पत्नी झगड़ालू थी और पति की इच्छा के विपरीत आचरण करती थी। एक बार उसके पिता के श्राद्ध के दिन उसने पिंड दान करते समय प्रथा के अनुसार पवित्र गंगा के बजाय, एक गंदे गड्ढे में फेंक दिया। इससे वलित क्रोधित हो गया। उसने धन की खोज में घर त्याग दिया। संयोग से वह रात आसो सुद पूनम की थी। जंगलों में उसकी भेंट कालिया नाग की कन्याओं से हुई। इन नागकन्याओं ने आसो सुद पूनम के दिन जागते हुए ‘कोजागरी व्रत’ किया था। उसी समय, भगवान विष्णु अपनी पत्नी लक्ष्मी सहित वहाँ से गुज़रे। वलित ने संयोगवश ‘कोजागरी व्रत’ रखा था, लक्ष्मी ने उन्हें प्रेम के देवता ‘कामदेव’ के समान रूप प्रदान किया। अब उनकी ओर आकर्षित होकर, नागकन्याओं ने वलित से विवाह किया और उन्हें अपना धन दान में दिया। फिर वह धन लेकर घर लौटे, जहाँ उनकी पत्नी ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया। इस घटना के बाद, संहिता में घोषणा की गई कि जो लोग इस पूनम के दिन जागते रहेंगे, उन्हें धन की प्राप्ति होगी।

इस रात, भगवान कृष्ण ने अपनी परमभक्त भक्त गोपियों, वृंदावन की गोपियों को अपने साथ महारास (पारंपरिक लोकनृत्य) खेलने के लिए आमंत्रित किया था। गोपियों ने सामाजिक और पारिवारिक वर्जना के विरुद्ध रास में सहभागिता की। श्री कृष्ण ने उन्हें अनन्य भक्ति प्रदान की। जब वे बृज में अपने घर छोड़कर वृंदावन पहुँचीं, तो श्रीकृष्ण ने उनका स्वागत किया। अपने प्रति उनके प्रेम की और परीक्षा लेने के लिए, उन्होंने कहा: ‘तुम जैसी चरित्रवान स्त्रियों को आधी रात में किसी अन्य पुरुष से मिलने के लिए घर से बाहर नहीं जाना चाहिए।’ तब गोपियों अत्यंत दुःखी होकर कहा- ‘हमारे चरण आपके चरण-कमलों से तनिक भी अलग नहीं होते। अतः हम व्रज कैसे लौट सकें?’ अपने प्रति अटूट प्रेम से प्रसन्न श्रीकृष्ण ने जितनी गोपियाँ थीं, उतने ही रूप धारण कर महारास का सूत्रपात किया। गोपियाँ गर्व से फूल उठीं कि ‘भगवान ने हम पर जो कृपा की है, उससे बढ़कर किसी की भक्ति नहीं हो सकती।’ महारास को भगवान की कृपा मानने के बजाय, अहंकार ने उनकी भक्ति को कलंकित कर दिया। अतः श्री कृष्ण तुरन्त रास मण्डल से अन्तर्धान हो गए।गोपियाँ श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं का स्मरण कर विरह वेदना का विलाप करने लगीं और ‘विरह गीत’ -गाए-

‘जयति ते-धिकम जन्मना व्रजहा…. (श्रीमद्भागवत १०/३१/०१)

भागवत (१-/३०/२५) में ‘लीला’ का वर्णन करते हुए शुकदेवजी राजा परीक्षित से कहते हैं- ‘हे परीक्षित! सभी रात्रियों में से शरद पुनम की वह रात्रि सबसे अधिक शोभायमान हो गई। श्रीकृष्ण गोपियों के साथ यमुना के किनारे घूमते थे, मानों सभी को अपनी लीला में कैद कर रहे हों।’

भगवान स्वामीनारायण के परम भक्त अक्षरब्रह्म गुणातीतानंद स्वामी का जन्म शरद पूर्णिमा, संवत १८४१ को हुआ था। उन्होंने आध्यात्मिक रूप से जागृत भक्तों को ईश्वर-साक्षात्कार का आशीर्वाद देकर ‘धन’ प्रदान किया।

लोक कथा

शरद पूर्णिमा की लोक कथा के अनुसार एक साहूकार की दो बेटियाँ थीं। बड़ी बेटी हमेशा पूर्णिमा का व्रत पूरी श्रद्धा से करती थी, जबकि छोटी बेटी व्रत को अधूरा छोड़ देती थी। इस कारण बड़ी बेटी को स्वस्थ संतानें हुईं, पर छोटी बेटी की संतानें पैदा होते ही मर जाती थीं। पंडितों की सलाह पर छोटी बेटी ने विधि-विधान से व्रत पूरा किया, तो उसे भी संतान हुई पर कुछ दिनों बाद वह भी मर गई। शोक में लीन छोटी बेटी ने मृत शिशु को पीढ़े पर लिटाकर कपड़ा ढक दिया और अपनी बड़ी बहन को वहीं बैठने को कहा। बड़ी बहन के छूते ही बच्चा जीवित हो गया। छोटी बेटी को पता चला कि यह बड़ी बहन के पूर्ण व्रत के पुण्य से हुआ है। इस घटना से दोनों बहनों ने नगरवासियों को पूर्णिमा व्रत की महिमा बताई, जिससे सभी ने व्रत रखना शुरू कर दिया। यह कथा सिखाती है कि सच्चे और विधिपूर्वक किए गए व्रत का फल अवश्य मिलता है।

शरद पूर्णिमा के दिन चंद्रमा अपनी सभी १६ कलाओं से पूर्ण होता है। सोलह कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है। मनुष्‍य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछ नहीं जाना और न समझा। प्रत्येक मनुष्य में ये १६ कलाएँ सुप्त अवस्था में होती है। इणका संबंध अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाओं से है। इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में भिन्न-भिन्न मिलते हैं।

प्रथम स्रोत- १.अन्नमय, २.प्राणमय, ३. मनोमय, ४.विज्ञानमय, ५.आनंदमय, ६.अतिशयिनी, ७.विपरिनाभिनी, ८.संक्रमिनी, ९.प्रभवि, १०.कुंथिनी, ११.विकासिनी, १२.मर्यादिनी, १३.सन्हालादिनी, १४.आह्लादिनी, १५.परिपूर्ण और १६.स्वरूपवस्थित।

द्वितीय स्रोत- १.श्री, २.भू, ३.कीर्ति, ४.इला, ५.लीला, ६.कांति, ७.विद्या, ८.विमला, ९.उत्कर्षणी , १०.ज्ञान, ११.क्रिया, १२.योग, १३.प्रहवि, १४.सत्य, १५.इसना और १६.अनुग्रह।

तृतीय स्रोत- १.प्राण, २.श्रधा, ३.आकाश, ४.वायु, ५.तेज, ६.जल, ७.पृथ्वी, ८.इन्द्रिय, ९.मन, १०.अन्न, ११.वीर्य, १२.तप, १३.मन्त्र, १४.कर्म, १५.लोक और १६. नाम।

वास्तव में १६ कलाएँ बोध प्राप्त योगी की भिन्न-भिन्न स्थितियाँ हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की १५ अवस्थाएँ ली गई हैं। अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का।

१९ अवस्थाएँ: भगवदगीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने आत्म तत्व प्राप्त योगी के बोध की उन्नीस स्थितियों को प्रकाश की भिन्न-भिन्न मात्रा से बताया है। इसमें अग्निर्ज्योतिरहः बोध की ३ प्रारंभिक स्थिति हैं और शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ की १५ कला शुक्ल पक्ष की १ कल है। इनमें से आत्मा की १६ कलाएँ हैं। आत्मा की सबसे पहली कला ही विलक्षण है। इस पहली अवस्था या उससे पहली की तीन स्थिति होने पर भी योगी अपना जन्म और मृत्यु का दृष्टा हो जाता है और मृत्यु भय से मुक्त हो जाता है।

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥

अर्थात : जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता हैं, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। – (भगवदगीता ८-२४ )

भावार्थ : श्रीकृष्ण कहते हैं जो योगी अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरुषों और योगियों में आत्म ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से अग्निमय, ज्योर्तिमय, दिन के सामान, शुक्लपक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय हो जाते हैं। अर्थात जिन्हें आत्मज्ञान हो जाता है। आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना या देह से अलग स्वयं की स्थिति को पहचानना।

‘जागृति’ का आध्यात्मिक अर्थ है सतर्क रहना। वचनामृत तृतीय-९ में, भगवान स्वामीनारायण इस सतर्कता की व्याख्या करते हैं। वे कहते हैं कि हृदय में जागृति ही भगवान के दिव्य धाम का प्रवेश द्वार है। भक्तों को धन, वासना आदि सांसारिक इच्छाओं को अपने हृदय में प्रवेश नहीं करने देना चाहिए। सफलता और असफलता, सुख और दुख, मान और अपमान जैसी बाधाओं का सामना करते समय, भक्तों को ईश्वर की भक्ति में अडिग रहना चाहिए। इस प्रकार, उन्हें ईश्वर के प्रवेश द्वार पर सतर्क रहना चाहिए और किसी भी सांसारिक वस्तु को प्रवेश नहीं करने देना चाहिए। जीवन में हर क्षण सतर्कता की आवश्यक है। यह अपने आप में एक सूक्ष्म तप बन जाता है। जिन लोगों ने बिना सतर्कता के कठोर तपस्या की, वे माया के वशीभूत हो गए। विश्वामित्र ने ६०,००० वर्षों तक तपस्या की, लेकिन मेनका के सान्निध्य में अपनी जागृति खो बैठे। इसी प्रकार, सतर्कता के अभाव ने सौभरि ऋषि, एकलशृंगी, पराशर आदि को भी परास्त कर दिया।

शरद पूर्णिमा की रात्रि का आकाश स्वच्छ और चंद्रप्रभा से परिपूर्ण होता है, साधक को भी अपने अंतःकरण को शुद्ध करने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए उसे देह-चेतना और सांसारिक इच्छाओं का उन्मूलन कर ब्रह्म-चेतना को आत्मसात करना होगा, ताकि परब्रह्म का निरंतर अनुभव हो सके। (गीता १८/५४, शिक्षापत्री ११६) इसके लिए साधक को गुणातीत साधु की खोज करनी होगी, जो मोक्ष (भगवान) का द्वार है, जैसा कि भागवत (३/२९/२०) में घोषित किया गया है:

प्रसंगमजारं पाशमात्मनहा कवयो विदुहु,
स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारं अपावृतम्।

ऋषियों का आदेश है कि यदि कोई जीव अपने शरीर और शारीरिक संबंधियों में अत्यधिक आसक्त है, उसी प्रकार गुणातीत साधु में आसक्त हो जाए, तो उसके लिए मोक्ष के द्वार खुल जाएंगे। भगवान को ‘दूध-पायस’ यानी दूध में भिगोए हुए भुने चावल का भोग लगाकर भक्तगण प्रसाद को ग्रहण करते हैं। इस प्रसाद के स्वास्थ्यवर्धक गुण दशहरे के प्रसाद के समान ही हैं; यह पित्त की गड़बड़ी को दूर करता है। स्वामीनारायण संस्था सभी मंदिरों में रात्रि में बड़े उत्साह के साथ यह उत्सव मनाती है। भक्त अक्षरब्रह्म गुणातीतानंद स्वामीकीर्तन गाते हैं और अक्षरब्रह्म गुणातीतानंद स्वामी की महिमा का गुणगान करते हैं। सभा के दौरान पाँच आरती की जाती हैं। प्रमुख स्वामी महाराज आमतौर पर गोंडल मंदिर में शरद पूर्णिमा मनाते हैं – जो गुणातीतानंद स्वामी के दाह संस्कार स्थल पर बना है।

जनश्रुति के अनुसार सिद्धार्थ ने वैशाख माह की पूर्णिमा को सुजाता से पायस ग्रहण करने के बाद ही बुद्धत्व पाया था। शरद पूर्णिमा आश्विन माह की पूर्णिमा को होती है किंतु पायस (दूध-चाँवल की खीर) का महत्व निर्विवाद है।

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