
डाॅ.शिवेश्वर दत्त पाण्डेय
विजयादशमी का पर्व हर वर्ष केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय दृष्टि से भी महत्वपूर्ण अवसर होता है। इस पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक का उद्बोधन देशभर में ध्यान से सुना जाता है। इस वर्ष सरसंघचालक मोहन भागवत जी का संबोधन भी कई दृष्टियों से उल्लेखनीय रहा।
भागवत जी ने स्वदेशी और आत्मनिर्भरता पर विशेष बल दिया। उन्होंने कहा कि विदेशी निर्भरता किसी मजबूरी का नाम न बने, बल्कि हमें अपने संसाधनों और क्षमताओं पर भरोसा करना चाहिए। यह संदेश ऐसे समय आया है जब वैश्विक अर्थव्यवस्था अस्थिर है और भारत अपनी आर्थिक सुदृढ़ता के लिए नये मार्ग खोज रहा है।
उन्होंने हिंसात्मक प्रदर्शनों को परिवर्तन का साधन मानने की प्रवृत्ति की आलोचना की और स्पष्ट कहा कि समाज और व्यवस्था को केवल लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण मार्गों से ही बदला जा सकता है। विविधताओं के सम्मान और सहिष्णुता पर दिया गया उनका संदेश भी विशेष महत्व रखता है। भारत की वास्तविक ताकत उसकी विविधता में ही है।
उद्बोधन का एक महत्वपूर्ण आयाम पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों पर चिंता थी। हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता, नदियों का सूखना और बार-बार आने वाली प्राकृतिक आपदाएँ विकास और प्रकृति के संतुलन की ओर ध्यान दिलाती हैं। इसी तरह सीमाओं की सुरक्षा और आतंकवाद की चुनौतियों पर उनकी चेतावनी भी समयानुकूल रही।
निस्संदेह, यह उद्बोधन समाज और राष्ट्र को दिशा दिखाने का प्रयास है। परंतु यह भी सत्य है कि उच्च आदर्शों और संदेशों को व्यवहार में उतारना सबसे बड़ी चुनौती है। स्वदेशी के आह्वान को नीतिगत समर्थन चाहिए, पर्यावरण की चिंता को ठोस योजनाएँ चाहिए और सामाजिक एकता को व्यवहार में उतरने की आवश्यकता है।
दशहरा हमें यह याद दिलाता है कि असत्य और अन्याय चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, उसकी हार निश्चित है। मोहन भागवत जी का संदेश इसी सत्य को नए सन्दर्भों में दोहराता है। अब जिम्मेदारी समाज और शासन दोनों पर है कि वे इस संदेश को केवल उद्बोधन तक सीमित न रहने दें, बल्कि उसे जनजीवन में मूर्त रूप दें।
डाॅ.शिवेश्वर दत्त पाण्डेय
समूह सम्पादक


