
कभी लगता है, तुम मेरी किताब रहते,तों
पलटती रहती दिन भर पन्ने हाथों से अपने।
कभी मुस्कुराते शब्दों में, कभी आंसुओं की स्याही में,
हर भावना बसी होती तुममें, जैसे रूह मेरी समाई हो जिनमें।
कुछ पृष्ठ होते रंगों से भरे,
जिनमें साथ बिताए लम्हें चमकते सुनहरे।
कुछ पन्ने कटे -से,
कुछ फटे ,
बीते दिनों के, अनकहे अफसाने, जो अधूरे अधूरे।
हर दिन पढ़ती
तुम्हें नए अर्थों में,
हर रात समझती तुम्हारी चुप्पी की गहराईयों में।
कभी लगता, तुम हो तो मैं हूँ —
वरना मैं भी बिखरे पन्नों सी कहीं गुम हूँ।
पूनम त्रिपाठी
गोरखपुर ✍️




