आलेख

विक्टिम कार्ड : शक्ति का नया भ्रम 

डॉ.उदयराज मिश्र

भारतीय समाज विविधता से परिपूर्ण है — भाषा, धर्म, जाति, वर्ग, और क्षेत्रीय भिन्नताओं से बुना हुआ। इस विविधता में सदियों से कुछ वर्ग सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े रहे हैं, जिनकी रक्षा और उत्थान हेतु संविधान ने विशेष अधिकार, आरक्षण और समानता के अवसर दिए। लेकिन बीते कुछ दशकों में एक नया परिघटन उभरा है — “विक्टिम कार्ड” यानी स्वयं को पीड़ित बताकर सहानुभूति या लाभ प्राप्त करने की रणनीति। यह “कार्ड” अब केवल सामाजिक रूप से वंचित वर्गों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि राजनीति, नौकरशाही, मीडिया और न्यायपालिका तक फैल गया है। शक्तिसंपन्न व्यक्ति, जो अपने अधिकार-बल और संसाधनों के बल पर समाज के शीर्ष पर हैं,अक्सर अपनी जातीय या धार्मिक पहचान का उपयोग “पीड़ित” बताने के लिए करते हैं। यह प्रवृत्ति न केवल नैतिक रूप से अनुचित है, बल्कि लोकतांत्रिक संतुलन और सामाजिक समरसता के लिए अत्यंत खतरनाक भी है।

“विक्टिम कार्ड” एक रूपक है जिसका अर्थ है — स्वयं को किसी ऐतिहासिक या सामाजिक अन्याय का शिकार बताकर अपने वर्तमान व्यवहार, लाभ या निर्णय को उचित ठहराना।इसका अर्थ यह नहीं कि किसी व्यक्ति या समुदाय ने अन्याय नहीं झेला, बल्कि यह कि वह अपने उत्पीड़न की स्मृति को राजनीतिक या व्यक्तिगत लाभ का औजार बना लेता है।हालिया दिनों में कांग्रेस नेता डॉ. उदितराज और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सहित हरियाणा में आत्महत्या करने वाले पुलिस अधिकारी पूरन कुमार तक के प्रकरणों में प्रायः यह समानता दिखी कि मलाई खाने वाले अनुसूचित वर्ग के शक्तिशाली नेताओं,अधिकारियों और न्यायाधीशों में जब उनके अनैतिक कर्मों की कुंडली खुलने का भय दिखता है तो वे सबकुछ भूलकर दलित विक्टिम कार्ड खेलकर जनसामान्य की भावनाओं से खेलने लगते हैं,विभाजन को प्रोत्साहन देने लगते हैं,जिससे उनके गुनाहों की पोथी खुलने न पाए।यदि कोई राजनेता यह कहे कि “मेरी जाति-वर्ग को सदियों तक अपमान सहना पड़ा, इसलिए मेरी आलोचना जातीय नफरत है।”कोई उच्च पदाधिकारी कहे कि “मुझे इसलिए निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि मैं दलित/अल्पसंख्यक हूँ।”या कोई समूह हर निर्णय को “हमारे साथ भेदभाव” बताकर विरोध करे, चाहे निर्णय वस्तुतः नियमसंगत ही क्यों न हो।यही “विक्टिम कार्ड” का राजनीतिक-मनोवैज्ञानिक रूप है।

भारत में सामाजिक असमानता की जड़ें गहरी हैं तथा  संविधान में अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों को संरक्षण मिला हुआ है।इन प्रयासों ने लाखों वंचित लोगों को शिक्षा, पद और सम्मान दिलाया।लेकिन अब जबकि समाज का बड़ा हिस्सा इन वर्गों से निकलकर सत्ता-संरचना में सशक्त हो चुका है, तब भी “हम पीड़ित हैं” का नारा राजनीति का हथियार बना हुआ है। यही स्थिति विक्टिम कार्ड की राजनीति को जन्म देती है।

दिल्ली के एक सरकारी बंगले से बेदखली के दौरान कांग्रेस नेता उदितराज ने कहा —“मुझे इसलिए निकाला गया क्योंकि मैं दलित हूँ और गरीबों की आवाज उठाता हूँ।”

(संदर्भ: India Today, 24 अक्टूबर 2025)

वास्तव में, वे संसद-भवन से लेकर टीवी डिबेट तक अत्यंत प्रभावशाली व्यक्ति हैं। फिर भी जब वे अपनी जाति को “उत्पीड़न” का कारण बताते हैं, तो यह प्रश्न उठता है —क्या दलित अस्मिता की रक्षा का अर्थ यह है कि शक्तिसंपन्न व्यक्ति हर प्रशासनिक कार्रवाई को भेदभाव बताए?यह उदाहरण दर्शाता है कि विक्टिम कार्ड सत्ता में बैठे व्यक्ति के लिए भी एक ढाल बन सकता है।

न्यायपालिका में विविधता का स्वागत है। किंतु जब सर्वोच्च पदों पर बैठे न्यायाधीश अपने समाज-वर्गीय पृष्ठभूमि को बार-बार सार्वजनिक रूप से रेखांकित करते हैं — जैसे बी.आर. गवैया का वक्तव्य कि“आरक्षण का उद्देश्य सबसे पिछड़े वर्ग को उनका हिस्सा देना है,”तो आलोचकों के अनुसार यह संकेत जाता है कि न्याय की निष्पक्षता से अधिक जातिगत दृष्टिकोण को तरजीह दी जा रही है।

यहां स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि न्यायाधीशों का उद्देश्य सामाजिक संतुलन की व्याख्या हो सकता है, किंतु जब ऐसा वक्तव्य “मैं स्वयं उस वर्ग से हूँ” के भाव से जुड़ता है, तो यह विक्टिम कार्ड का संकेत बन जाता है — “मैं पीड़ित वर्ग से हूँ, इसलिए मेरा दृष्टिकोण अधिक नैतिक है।”

चुनावी मौसम में दलों द्वारा बार-बार “दलित वोट बैंक” या “अल्पसंख्यक खतरे में हैं” जैसी भाषा का प्रयोग भी विक्टिम कार्ड का ही रूप है।

बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति में “मायावती”, “लालू प्रसाद”, “अखिलेश यादव” या “असदुद्दीन ओवैसी” जैसे नेता जाति-धर्म आधारित उत्पीड़न की ऐतिहासिक कथा को बार-बार पुनः प्रस्तुत करते हैं।इससे यह भाव पनपता है कि वोटर तर्क-आधारित नहीं, बल्कि पीड़ा-आधारित निर्णय लें।इस प्रकार, विक्टिम कार्ड केवल व्यक्ति नहीं, बल्कि पूरी राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बन चुका है।

जब शक्तिशाली लोग भी स्वयं को पीड़ित बताते हैं, तो वास्तविक पीड़ितों की आवाज़ कमजोर पड़ जाती है। जो सच में अन्याय सह रहे हैं, उनकी जगह “नाटकीय पीड़ा” लेने वाले लोग चर्चा में आ जाते हैं।

किसी न्यायाधीश, अफसर या मंत्री द्वारा अपने निर्णयों को “मेरी जाति/धर्म की दृष्टि से” सही ठहराना प्रशासनिक तटस्थता को नष्ट करता है।

यदि हर आलोचना को “जातीय-विद्वेष” या “धार्मिक नफरत” बता दिया जाए, तो सुधार के अवसर समाप्त हो जाते हैं। कोई संस्था अपनी गलती स्वीकार नहीं करती, क्योंकि आलोचना को ही “उत्पीड़न” कहा जाता है।

जब हर वर्ग खुद को “पीड़ित” बताने लगे, तो समाज “हम-वो” में बँट जाता है। यह “विक्टिम संस्कृति” एक प्रकार की मानसिक दासता है, जिसमें व्यक्ति अपनी उपलब्धियों का श्रेय मेहनत को नहीं, बल्कि अपने दुख को देता है।

मीडिया और राजनीति में “पीड़ा बेचने” की प्रवृत्ति विकसित हो गई है। पीड़ित की छवि अब नैतिक पूँजी बन चुकी है — जिसे कुछ लोग “वोट पूंजी” में बदल देते हैं।

समाजशास्त्री थॉमस सोवेल ने कहा था — “पीड़ित होना भी शक्ति अर्जित करने का साधन बन सकता है।”भारत में यह बात पूरी तरह लागू होती है।

जहाँ पहले उत्पीड़ित वर्ग न्याय की मांग करता था, अब वही वर्ग सत्ता में आने पर अपनी ‘पीड़ित’ पहचान का उपयोग दूसरों पर आरोप लगाने या वैध आलोचना को दबाने के लिए करता है।यह “रिवर्स डिस्क्रिमिनेशन” (उलटा भेदभाव) की स्थिति है — जहाँ समानता के नाम पर विशेषाधिकार का विस्तार हो जाता है।

विक्टिम कार्ड एक रक्षात्मक मानसिकता पैदा करता है।व्यक्ति स्वयं को हमेशा अन्याय का शिकार मानता है।वह हर आलोचना को ‘हमले’ की तरह लेता है।परिणामस्वरूप उसमें आत्म-सुधार की क्षमता घटती है, और समाज में अविश्वास बढ़ता है।यह मानसिकता लोकतंत्र के लिए घातक है, क्योंकि लोकतंत्र संवाद, आत्म-मूल्यांकन और सहअस्तित्व पर चलता है — न कि स्थायी पीड़ित-भावना पर।

क्या विक्टिम कार्ड पूरी तरह गलत है?नहीं। कुछ स्थितियों में यह आवश्यक चेतावनी-संकल्प भी है।जब वास्तविक भेदभाव या उत्पीड़न मौजूद हो, तब अपनी पीड़ा को उजागर करना सामाजिक न्याय की दिशा में आवश्यक कदम है।किन्तु समस्या तब है जब पीड़ा वास्तविक न होकर प्रतीकात्मक हो,वक्ता का उद्देश्य न्याय न होकर लाभ हो,और समाज को अपराध-बोध में रखकर राजनीतिक सहानुभूति अर्जित की जाए।

जो व्यक्ति या वर्ग शक्तिसंपन्न हो चुका है, उसे “हमेशा पीड़ित” की भूमिका छोड़नी चाहिए। उसे अब समाज निर्माता के रूप में कार्य करना चाहिए, न कि शिकायतकर्ता के रूप में।

मीडिया को हर “पीड़ित बयान” को सनसनी की तरह प्रस्तुत न कर, तथ्यों के साथ विश्लेषण करना चाहिए कि बयान का उद्देश्य सहानुभूति है या राजनीतिक लाभ।

बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि सम्मान मेहनत से आता है, न कि केवल पहचान से। “मेरी जाति/धर्म मुझे अधिकार देती है” की जगह “मेरे कर्म मुझे अधिकार देते हैं” की भावना विकसित करनी होगी।

आरक्षण और संरक्षण नीति को समय-समय पर पुनरावलोकित किया जाना चाहिए ताकि वास्तविक वंचित को लाभ मिले, न कि राजनीतिक पीड़ितों को। जाति या धर्म की जगह “नागरिक” और “मानव” की पहचान को प्रमुख बनाया जाए। तभी विक्टिम कार्ड की राजनीति निष्प्रभावी होगी।

“विक्टिम कार्ड” एक खतरनाक सामाजिक प्रवृत्ति है जो सहानुभूति को हथियार में बदल देती है।

यह न तो वास्तविक न्याय दिलाता है, न समाज को जोड़ता है — बल्कि नए विभाजन पैदा करता है।डॉ. आंबेडकर ने कहा था —

“स्वतंत्रता केवल अधिकार नहीं, जिम्मेदारी भी है।”

जब समाज के सशक्त वर्ग अपने इतिहास की पीड़ा को जिम्मेदारी में बदलेंगे, तभी सच्ची समानता संभव होगी।पीड़ा को सम्मान में बदलना चाहिए, न कि वोट बैंक या ढाल में।

“विक्टिम कार्ड” की राजनीति आज भारतीय लोकतंत्र के नैतिक तंतु को कमजोर कर रही है।

अब आवश्यकता है “विक्टिम मानसिकता” से “विजेता मानसिकता” की —

जहाँ कोई यह न कहे कि “मैं पीड़ित हूँ, इसलिए विशेष हूँ”,

बल्कि यह कहे —

“मैंने संघर्ष किया, इसलिए सफल हूँ।”

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