

है लिखीं अनगिनत यात्राएं जीवन में उसकी
नित नए काम में उलझा है वह
चलती रहती हैं उसकी यात्राएं
अंतहीन चुप-चाप
कभी चलता है वह कभी दौडता है एक दम
ना जाने किस लिए
किसी ने तो जाने होंगे उसके मन के द्वंद्व
या ना जाना हो किसी ने उसका अन्तर्मन
फिर भी चला है वह अंधेरे में उजाले मे ,बारिश में
कभी पटरियों पर तेज दौडा है कभी लडा है वह उन लोगो से
अनजान अजनबियों से और न जाने किसी से
यात्राएं अब भी करनी है उसे
जीवित है वह इन्हीं के कारण अपनो के कारण
जन्म ले रही है यात्राए नित नए प्रावधानों के साथ
अटूट है जीवन की अनगितन यात्राएं से दूर जाना।
अक्षय महोदिया
झाबुआ म0प्र0


