आलेख

योग : साधना या प्रदर्शन? (आचार्य शीलक राम के विचारों पर आधारित चिंतन)

डॉ सुरेश जांगडा

कितनी ही योग-शिक्षिकाओं को अर्धनग्न होकर योगाभ्यास (आसन और प्राणायाम) करते हुए देखा जाता है। इस प्रकार से अर्धनग्न होकर योगाभ्यास के वीडियो या रील आदि बनाने से पहले और बनाते समय उनके मन-मस्तिष्क में योगाभ्यास के साथ-साथ कौन-से विचार चल रहे होते हैं? अधिकांश जनमानस ऐसी योग-शिक्षिकाओं के वीडियो और रील आदि को अर्धनग्न होने की वजह से देखता है, योगाभ्यास सीखने के लिए नहीं। योगाभ्यास सिखाते समय कामुकता, कामवासना और कामुक भाव की उत्तेजना का क्या सदुपयोग हो सकता है — यह इन योग शिक्षिकाओं को स्वयं भी नहीं मालूम होता।

अधिकांशतः विभिन्न योग-केंद्रों पर भी इसी अर्धनग्न-शैली में योगाभ्यास करवाया जा रहा है। अपने दर्शक बढ़ाने के सिवाय इसका अन्य कोई औचित्य दिखाई नहीं पड़ता है। उद्देश्य यही होता है कि किसी भी तरह से दर्शकों की संख्या में बढ़ोतरी हो जाए ताकि अधिक धन-दौलत कमाया जा सके। माना कि धन-दौलत के बिना कोई कार्य नहीं होता, लेकिन योगाभ्यास तो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक लाभ के लिए किया जाता है। कम से कम यहां पर तो अपने व्यापारी व्यवहार को तिलांजलि देनी चाहिए।

जनमानस की कामुकता तो पहले ही भड़की हुई है। योगाभ्यास को इस कामवासना का “उर्ध्वगमन” करना सिखाया जाना चाहिए, न कि उसे भड़काकर मानसिक रूप से उत्तेजित किया जाए। कम से कम योगाभ्यास करवाते समय तो सात्विकता, सौम्यता, सहजता और सरलता के भाव होने चाहिएं। योग कोई प्रदर्शन नहीं, बल्कि आत्मानुशासन, संयम और आत्मजागरण की साधना है।

आचार्य शीलक राम के विचार
आचार्य शीलक राम जी के अनुसार —

> “योग केवल शरीर को मोड़ने-मरोड़ने की कला नहीं है, यह आत्मा को सीधा करने का विज्ञान है।”
“जहां शरीर प्रदर्शन का माध्यम बन जाए, वहां योग साधना नहीं, व्यवसाय बन जाता है।”
“कामुकता का उभार योग नहीं, योग का सार तो कामवासना का sublimation — अर्थात् उर्ध्वगमन — है।”
“योगाभ्यास में वस्त्रों की नहीं, विचारों की पवित्रता आवश्यक है।”

 

योग की सात्विक मर्यादा
आज दुर्भाग्य से शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, वेशभूषा, व्यापार, प्रबंधन, राजनीति—सभी क्षेत्रों में कामुकता, कामवासना और तामसिकता को बढ़ाने के प्रयास चल रहे हैं। समाज की नैतिकता और संस्कृति निरंतर बाजारवाद के नीचे दबती जा रही है। परंतु कम से कम योगाभ्यास को तो इन सब प्रवृत्तियों से दूर रखना ही उचित है।

योग वह पवित्र साधना है जो मनुष्य को देह से देवत्व की ओर ले जाती है। इसलिए आचार्य शीलक राम जी का यह आह्वान अत्यंत सार्थक है—

> “योग को बाज़ार नहीं, ब्रह्म की साधना बनने दो।
इसे दिखावे से नहीं, आत्मदर्शन से जोड़ो।”

डॉ सुरेश जांगडा
राजकीय महाविद्यालय सांपला, रोहतक (हरियाणा)

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