आलेख

आदिवासी पुरुष और अद्भुत आस्था विश्वास से जीता, मानवीय इंसान

डॉ रामशंकर चंचल

झाबुआ मध्य प्रदेश के आदिवासी जन खास तौर से पुरुष को ले हम तो
सचमुच अद्भुत कर्म शील जिस्म, सतत् सक्रिय, थकान और टूटन जैसी बीमारियों से कोसों दूर, सदा ही कुछ न कुछ करते हुए कर्म दिन भर गुजार देता है और रात बीड़ी के कुछ कश लेते हुए या कभी ताड़ी ताड़ के पेड़ का द्रव्य पान कर आज के परिश्रम की खुशी में मस्त हो जाता है और कोई भीली गीत गुनगुनाते हुए सो जाता हूं सुबह के इंतजार में चार पाई पर और रखी एक खटिया पर पत्नी और बच्चों को सुला देता है ताकि रात के अंधेरे में कोई जीव,जानवर का खतरा नहीं हो

पुरुष जो सचमुच बेहद गर्व है पुरुष जो सचमुच वंदनीय है ईश्वर का दिया यह पुरुष सदा से ही सदियों से ही
अपने परिवार घर और समाज के लिए जीता आया है हजारों इच्छा को अपनी त्याग कर फिर वह पढ़ा लिखा पुरुष हो या अनपढ़, पुरुष, पुरुष हैं जिसमें अद्भुत पुरुषार्थ है और जीवन ऊर्जा और ताकत जो सचमुच कुछ भी करने को तैयार रहता है अपनो के सुख सुकून के लिए बिना कोई चाह इच्छा के केवल प्रेम का अपनेपन का अहसास बहुत होता हैं उसके लिए, अपनों को सुख सुकून देने के लिए
यह परम सत्य का किसी जाति धर्म या ऊंच नीच, या अमीर गरीब से कोई नाता नहीं, सभी पुरुष वर्ग सचमुच बेहद सुख सुकून देता हुआ जीता है अपनों को उसी में अपनी खुशी जाहिर करते हुए जी जाता है
मेरे गांव का आदिवासी पुरुष भी वैसा ही है जैसे सब है
देखे कविता में

वह गांव की
पगडंडी से
दौड़ता, उछलता
चला आ रहा था
कोई गीत गुनगुनाते हुए
एक बच्चों को कंधे पर बैठा कर
अपनी ही, मस्ती में मस्त
दुनिया की तमाम खुशी को
अपने कंधे पर बैठा कर
प्रसन्न होता हुआ
वह मासूम पिता के
कंधे पर बैठ
पाता है एक ऐसा सुख सुकून
जो कही से खरीदा
नहीं जा सकता
जिसकी कीमत अथाह है
यह है पुरुष जो
सदियों से जिंदा है
अपनों के
सुख सुकून के लिए

डॉ रामशंकर चंचल

सचमुच बेहद सुखद अहसास होता है भोले भाले इंसानों को देख उनके भीतर विराजमान ईश्वर को देख, और ईश्वर क्या होता हैं जो सदा ही दुनिया की तमाम खुशी के लिए सदा ही लगा रहता है अपनों के लिए

गांव की किसी की समस्या उसकी समस्या बन जाती हैं और साथ देते हुए उसे भी सुख सुकून देता है
संवेदनशीलता और मानवीय मूल्यों का अद्भुत नाम है आदिवासी जन
यूं ही नहीं सदा ही खुश प्रसन्न रहते हुए जीवन पर्यन्त उम्र कांट देते हैं जवान बने हुए ही, बुढ़ापा क्या होता हैं नहीं जनता है और सच तो यह है कि बुढ़ापा हमारी सोच चिंतन पर नर्भर है , स्वस्थ है तो जवान है बस इतना बहुत है सोचने के लिए और यह सत्य देखा जा सकता है इन आदिवासी पिछड़े अंचल के जीवन में, दिन रात श्रम में लगा हुआ आदिवासी को बुढ़ापा क्या है नहीं जानता है, इतनी अद्भुत ऊर्जा समेटे कर्मशील होता है कि, देखते ही रह जाते है, शहर के लोग, जो हजारों दवाई ले प्रतिदिन जिंदगी को जीवंत रखें जी रहे हैं कर्म हीन, यह कर्म हीनता ही उनका बुढ़ापा है पर समझे तब न
खैर साहब मुझे क्या करना , ज्यादा लिखा तो शहरी लोग नाराज हो जायेगे वैसे ही है
पर सत्य है कि सदा ही कर्म शील व्यक्ति इतना मजबूत हो जाता है और आदि हो जाता है कि बुढ़ापा जैसे चीज से उसका परिचय नहीं होता या उसे नहीं दिखाई देता
अपनी व्यस्तता में सतत् सक्रिय रहने
में, उन्हीं से सिखा हूं मैं जीवन बन कर रहना तो बुढ़ापे जैसे कमज़ोर शब्द से कोसों दूर रहे
याद आती हैं अमिताभ बच्चन जी की फिल्म, बूढ़ा होगा तेरा बाप , बेहद सार्थक सुखद ताकत ऊर्जा देता हुआ यह संवाद है और सत्य भी
सत्य इसलिए की में खुद जितनी साधना तपस्या जवानी में कर सतत् लगा रहा कर्म शील सृजन दीप जलाएं हुए उससे कही अधिक बहुत अधिक आज उम्र के 68साल में सक्रिय हूं क्योंकि कि समय ही नहीं मिलता क्या उम्र है
जब स्वस्थ है, मस्त है तो व्यर्थ दौड़ भाग कर बार बार डॉक्टरों को क्या दिखना , सब केसा है, अरे भाई आप सतत् स्वस्थ हैं कर्म शील है तो व्यर्थ चिंता को क्यों जन्म दे रहे हैं अपने भीतर
खैर बार बार तुलना इस लिए करता हूं कि इन अज्ञानी कहे जाने वाले आदिवासी पिछड़े वर्ग के आदिवासी लोग के पास सचमुच अथाह ज्ञान हैं जो आज हमारी खुशहाल जिंदगी का अद्भुत मंत्र हो सकता है

 

जितना लिखूं कम होता हैं इन ईश्वरीय तुल्य इंसानों पर सहज सरल मुस्कान लिए सदा ही सभी के लिए जीते हुए इंसान , जाती धर्म राजनीति की बैराग अलाप रही दुनिया से कोसों दूर रहकर सतत् सक्रिय साधना तपस्या करते हुए जीवन पर्यन्त प्रसन्न रहते हुए इंसानों को जो सचमुच मुझे अच्छा इंसान बना दिया,,,, वंदनीय देव भूमि झाबुआ इसकी पावन पवित्र सोच चिंतन और मानवीयता

सत् सत् प्रणाम करता हूं सभी को
डॉ रामशंकर चंचल
झाबुआ मध्य प्रदेश

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