
आज के ‘अर्जुन’ को गीता का उपदेश देने वाले ‘श्रीकृष्ण’ कहां हैं?
समकालीन प्रसिद्ध विचारक और आध्यात्मिक मार्गदर्शक ओशो की विरोधाभासी प्रवचन- शैली ने युवावर्ग का पथ- प्रदर्शन करने की बजाय उनको पथभ्रष्ट अधिक किया है। पता नहीं उन्होंने क्या सोचकर यह शैली अपनाई होगी।कारण कोई भी रहे हों लेकिन यह सच है कि जनमानस इनसे पथभ्रष्ट ही अधिक हुआ है। जिनको जो भी सिद्ध करना होता है वह ओशो के वैसे कथनों को निकालकर सोशल मीडिया पर शेयर करता रहता है लेकिन ओशो द्वारा उसी कथन के विरोध में कहे गये कथन की उपेक्षा कर दी जाती है। लगता है कि ओशो को पढ़कर जनमानस हो या विचारक हो- दोनों को अपनी-अपनी धारणाओं के प्रति कट्टर होने के पुख्ता प्रमाण मिल जाते हैं। होना तो इसका उल्टा चाहिये था। होना तो यह चाहिये था कि लोग ओशो को पढ़कर अपनी हानिकारक पूर्वधारणाओं से मुक्त हो पाते। पूर्व और पश्चिम में लगभग यही बुरा हाल अन्य महापुरुषों, ग्रंथों, विचारधाराओं और दर्शनशास्त्रों का हुआ है।
चार्वाक ने परमात्मा का खंडन किया है लेकिन चार्वाकियों ने खुद चार्वाक को परमात्मा बना दिया। सिद्धार्थ गौतम ने किसी अदृश्य एकछत्र सत्ता का विरोध किया लेकिन उनके भिक्षुओं ने खुद सिद्धार्थ गौतम को अर्हत, बोधिसत्व और मैत्रेय आदि के रूप में परमात्मा के आसन पर बैठाकर उसकी पूजा करना शुरू कर दिया। और तो और जिस मूर्तिपूजा , पूजा-पाठ, कर्मकांड आदि का सिद्धांत गौतम ने जोरदार खंडन किया था,उसी को सैकड़ों गुना बढा-चढ़ाकर विहारों, स्तूपों, मूर्तियों आदि के रूप में दुनिया के सबसे बड़े और घृणित पाखंड और ढोंग को जन्म दे दिया।निगंठ नाथपुत्त यानी महावीर ने परमात्मा जैसी सत्ता को नकारकर आत्मा को सर्वोच्च सत्ता माना लेकिन जैनियों ने महावीर को ही परमात्मा बनाकर पूजना शुरू कर दिया और आत्मा के संबंध में सबसे कम खोज करने को महत्व देना शुरू कर दिया।नास्तिक कहे जाने वाले कार्ल मार्क्स ने चेतन सत्ता, धर्म और पवित्र ग्रंथ का खंडन किया लेकिन मार्क्सवादियों ने मार्क्स को परमात्मा, दास कैपिटल को पवित्र ग्रंथ और मार्क्सवाद को ही धर्म बना दिया है। अस्तित्ववादी कहे जाने वाले विचारक नीत्शे ने परमात्मा के रहते हुये व्यक्ति के अपमान को परिभाषित किया लेकिन परिणाम हुआ क्या? खुद को ही परमात्मा मानने वाले हिटलर जैसे तानाशाह को पैदा किया। सुपरमैन की उनकी अवधारणा परमात्मा की जगह पर स्थापित हो गयी। सनातन धर्म,संस्कृति, अध्यात्म और वेद को गालियां देने वाले बौद्धों ने भी अपना एक परमात्मा, पवित्र ग्रंथ, मूर्ति, मूर्तिपूजा और कर्मकांड पैदा कर लिये हैं। वो आज उसकी पूजा कर रहे हैं। कहने का निहितार्थ यह है कि परमात्मा या एक सर्वोच्च सत्ता, एक पवित्र ग्रंथ, उसकी पूजा और उसके पूजापाठ के स्थान बनाने से इस धरती पर कौन बच पाया है? और तो और विज्ञान और वैज्ञानिकों ने भी अपने मैटर को परमात्मा, प्रयोगशाला को मंदिर और विज्ञान की पुस्तकों को पवित्र ग्रंथ के रूप में स्थापित कर लिया है। यहां भी पाखंड, ढोंग, शोषण, अंधभक्ति और अंधभक्तों का बाहुल्य हो गया है।
उपरोक्त विवरण के संदर्भ में महापुरुष गलत थे या उनकी विचारधारा ग़लत थी या उनकी प्रचार- प्रसार की शैली ग़लत थी या उनकी मानसिकता में कुछ और तथा बाहर कुछ और चल रहा था? कहीं उनकी कथनी और करनी में तो भेद नहीं था? अनुयायी तो बिना तर्क और चिंतन की कसौटी पर कसे ही अपने आराध्य की कही गई बातों पर आंखें बंद करके भरोसा कर लेता है। आखिर इन महापुरुषों ने अपनी विचारधारा, प्रवचन और लेखन शैली तथा जीवन-दर्शन को इस ढंग से क्यों नहीं निर्मित किया कि जिससे उनके अनुयायी भ्रमित नहीं होते।यह तो ऐसा ही हुआ कि गले से रसल वाईपर सांप को निकालकर कोबरा सांप को गले में डाल लिया हो। समस्या तो वही की वही अनसुलझी ही रही। महापुरुष होते तो इसलिये हैं कि जनमानस को भ्रम, भय, अज्ञान और शोषण से बाहर निकालकर सही रास्ते पर लाने में सहायता करें। लेकिन यहां तो भ्रम, भय, अज्ञान और शोषण की ही भरमार है।
इस समय कुरुक्षेत्र सहित हरियाणा और भारत में गीता जयंती के कार्यक्रम हो रहे हैं। आप इस संदर्भ में श्रीमद्भगवद्गीता का ही उदाहरण ले लो। अपने प्रवचनों और वक्तव्यों में सभी गीता -मनीषी, धर्माचार्य और गीता -वक्ता जनमानस को अर्जुन बनने की सीख दे रहे हैं। लेकिन इनसे कोई पूछने वाला हो कि अर्जुन को उपदेश करने वाले श्रीकृष्ण कहां पर हैं? भ्रमित और दुविधाग्रस्त अर्जुन को सही रास्ते पर लाने वाले श्रीकृष्ण तो कहीं भी दिखलाई नहीं दे रहे हैं। यहां पर भ्रमित, दुविधाग्रस्त और अज्ञान में फंसे हुये अर्जुन तो सब जगह पर बहुतायत से मौजूद हैं लेकिन श्रीकृष्ण कहीं भी नहीं हैं। धर्म, मजहब, संप्रदाय, रिलीजन, योग, अध्यात्म,राजनीति, शिक्षा, प्रबंधन, व्यापार, विज्ञान, विदेशी संबंध और यहां तक कि खुद श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेश के क्षेत्र में भी हर तरफ भ्रमित, दुविधाग्रस्त, भयभीत, बिमार, तनावग्रस्त, चिंतित ,भ्रष्ट, अकेले अर्जुन तो सभी हैं लेकिन मार्गदर्शन करने वाला श्रीकृष्ण कहीं भी नहीं हैं। अकेली गीता की 700 श्लोकयुक्त पुस्तक को पढ़ने, रट्टा मारने और सैमिनार आदि करने से कुछ भी सार्थक परिणाम मिलने वाला नहीं है। औपचारिकता निभाने से धन, दौलत, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा और पद तो सुरक्षित हो जायेंगे लेकिन गीता की शिक्षाएं आचरण में नहीं उतर पायेंगी। हर स्थान पर हो भी यही रहा है। गीता, गीतोपदेश, श्रीकृष्ण और अर्जुन से शायद ही किसी को कोने मतलब होगा। जिनके हाथों में गीता की प्रति, गीता की शिक्षा, गीता के डिप्लोमा कार्यक्रम, गीता अध्ययन शोध-केंद्र और गीता आश्रम आदि मौजूद हैं वो अधिकांशतः धृतराष्ट्र, दुर्योधन, कंस आदि की भूमिका निभा रहे हैं। आज जिन्होंने भी गीता के उपदेश, प्रवचन, गोष्ठियां और गीता -ज्ञानयज्ञ करने की जिम्मेदारी उठा रखी है, उनमें अधिकांशतः भगवान् श्रीकृष्ण जैसा कुछ भी नहीं है। इनके आचरण, चाल-चलन और चरित्र से तो ऐसा लग रहा है कि इनमें खुद ही दुविधा, दोगलापन, अनिर्णय, कपट, छल, द्वेष, अन्याय, इर्ष्या, वैमनस्य, शोषण, भेदभाव, अज्ञानता, धन-लोलुपता, प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा की कामना, पद की चाहत, अति-कामुकता, तनाव, चिंता, अकेलापन और मौलिक प्रतिभाओं की उपेक्षा करने का सारा माल मसाला मौजूद है।
जनमानस में एक धारणा बनी हुई कि जनमानस पर गीता के उपदेश का कोई अच्छा प्रभाव नहीं पड़ रहा है। प्रति वर्ष गीता की शिक्षाओं को केंद्र में रखकर हजारों करोड़ रुपये पानी की तरह बहाये जा रहे हैं। अनेक डिप्लोमा कार्यक्रम शुरू हो चुके हैं।स्नातक और स्नातकोत्तर कक्षाओं के पाठ्यक्रम में भी गीता को जोड़ दिया गया है। इस ग्रंथ पर शोधकार्य भी हो रहे हैं। चर्चाएं, व्याख्यान, गोष्ठियां और कांफ्रेंस में हो रहे हैं। गीता पर कथाएं भी हो रही हैं। लेकिन दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि इन सब प्रयासों के साथ विशिष्ट जन से लेकर जनमानस तक का आचरण,चरित्र, व्यवहार और कर्तव्य-पथ भ्रष्ट होते जा रहे हैं। इसके कारण जानने के लिये सभी के सभी जनमानस पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते मिल जायेंगे। कहते मिल जायेंगे कि जनमानस सुधरना ही नहीं चाहता। आधुनिकता के कारण जनमानस का ध्यान वेद, उपनिषद्,गीता की शिक्षाओं पर चलने का नहीं अपितु धन,दौलत, रोजगार,पद, प्रतिष्ठा आदि को पाने पर है। लेकिन वास्तव में यह सही और निष्पक्ष आंकलन नहीं है। सही आंकलन यह है कि आज श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश श्रीकृष्ण के हाथों से निकलकर नेताओं,पूंजीपतियों, उद्योगपतियों,कोरपोरेट घरानों और गुरमीत सिंह, रामपाल दास जैसे अपराधियों के हाथों में पड़ गया है। बड़े कहे जाने वाले लोग तो पहले ही भ्रष्ट हैं लेकिन इनका अंधभक्त जनमानस सुधरने की अपेक्षा दिन प्रतिदिन और भी अधिक बिगडता ही जा रहा है।
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है –
त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रय:।
कर्मण्यभिप्रवृत्तो३पि नैव किञ्चत्करोति स:।। गीता,4/20
अर्थात् समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है तथा परमात्मा में नित्य तृप्त है,वह कर्मों में भली-भांति बर्ताव करता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता है। ध्यान देने की बात है कि इस समय ऐसा कोई गीता मर्मज्ञ, गीता मनीषी, गीता विचारक, गीता प्रोफेसर, गीता प्रचारक, संन्यासी, स्वामी, गीता ज्ञान यज्ञकर्त्ता मौजूद है, जो उपरोक्त श्लोक के अनुसार रत्ती भर भी जीवन जीता हो? सभी को प्रोपर्टी, जमीन, जायदाद, ऊंची कोठियां, भव्य आश्रम, बैंक बैलेंस, पद, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि जोड़ने की होड़ लगी हुई है। उपरोक्त तथाकथित महानों के अधिकांश कर्म गीता की शिक्षाओं के विरोध में जाकर स्वार्थ, मोह, लालच, छल, कपट और धूर्तता से परिपूर्ण हैं।जब गीता का उपदेश करने वाले ही मोह, माया, कामवासना, पद, प्रतिष्ठा, अहंकार और प्रसिद्धि के पीछे भाग रहे हैं, तो इनके पीछे चलने वाले करोड़ों अंधभक्त अनुयायी कहां जायेंगे? अंधा अंधा ठेलिया दोनों कूप पडंत। हमारे सामने श्रीमद्भगवद्गीता ग्रंथ भी है, जनमानस धार्मिक प्रवृत्ति का है-लेकिन ऐसे विषम हालात में जनमानस को गीता का अमर संदेश कैसे पहुंचाया जाये? आज भारत में अर्जुन को उपदेश देते हुये श्रीकृष्ण की तरह घोषणा करने वाला कोई भी मौजूद नहीं है –
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम्।।
अर्थात् मुझको तू अपनी इन स्थूल आंखों से देखने में निसंदेह समर्थ नहीं है।इसी से मैं तुम्हें दिव्य आंखें प्रदान करता हूं। उनसे तुम मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देखो। इस प्रकार के सत्यनिष्ठ और रुपांतरकारी उपदेश सुनने के लिये अर्जुन जैसा श्रोता और भगवान श्रीकृष्ण जैसा उपदेशक होना चाहिये। फिलहाल यहां पर न तो कोई उपदेशक श्रीकृष्ण हैं तथा न ही कोई श्रोता अर्जुन हैं। ऐसे में गीता की शिक्षाओं को जन -जन तक पहुंचाने के लिये कोई भी प्रयास सफल नहीं हो सकता।हो सकता है कि उपदेश सुनकर उसे आचरण में उतारने वाला कोई अर्जुन मिल भी जाये, लेकिन किसी भी हालत में गीता का उपदेश देने वाले श्रीकृष्ण कहीं भी नहीं मिलेंगे। यहां तो धृतराष्ट्रों, दुर्योधनों,दुशासनों,कंसों और इनके सहयोगी अंधभक्तों की भीड़-भाड़ मौजूद हैं। हमारे मध्य में कोई वेदव्यास,श्रीकृष्ण, विदुर आदि कहीं पर होगा भी तो वह बेचारा कहीं किसी उजड़े हुये घर के किसी कोने में बैठा हुआ अपमान, उपेक्षा, उपहास, गरीबी, अभाव होने के डर से ग्रस्त होकर अपने मरने का इंतजार कर रहा होगा।
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डॉ शीलक राम आचार्य
दर्शनशास्त्र -विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र -136119




