
मेरी उंगलियों के निशान
सब पर लगे हैं।
स्कूल की हर दीवार पर,
मैदान में बिछी
हर्ष- विषाद भरे ,
पलों की साक्षी
सीढियों पर,
पुस्तकालय की पुस्तकों पर,
जिन्हें मैंने पढा़ -परखा है।
सहकर्मियों की हथेलियों पर,
जिनसे मैंने गर्मजोशी से
हाथ मिलाया है।
उन बच्चों के चेहरों पर,
जिन्हें मैंने स्नेह से छुआ है।
उन पीठों पर,
जिन्हें थपथपा कर ,
मैंने उनका हौंसला बढा़या है।
मेरी यह पहचान
मुखर है आज भी ,
इस ज्ञानांगन के कण -कण में।
जब भी मैं अतीत में झाँकती हूँ तो स्कूल की स्मृतियाँ,मन की घाटी में अजस्त्र निर्झर सी झरने लगती हैं। इनका संगीत और शीतलता मन को स्निग्धता और संतुष्टि से भर देते हैं।विद्यालय में बीते ,मेरे जीवन के साढे़ तीन दशकों से भी अधिक के समय में ,कोई भी तो अप्रिय स्मृति नहीं है।
मुझे आठ अक्तूबर सन् तिहत्तर का वह दिन आज भी याद है जब मैंने शिक्षिका के रूप में विद्यालय परिसर में प्रवेश किया था।उसी दिन मिसेज मधु शर्मा ने भी कैमिस्ट्री की अध्यापिका के रूप में कार्यभार संँभाला था। मधु अपने नाम के अनुसार ही मृदुभाषी और मधुर शिष्ट स्वभाव वाली सौम्य,सुदर्शना महिला थीं। वे साहित्य में अपार रुचि रखतीं थीं। इसी रूचि साम्य के कारण उस दिन से ही वे मेरी अंत रंग मित्र बन गईं।
हमने पुस्तकालय की हिंदी साहित्य की हर विधा की पुस्तकें और सभी विदेशी भाषाओं की अनूदित पुस्तकें पढ़ डालीं। । अमृत लाल नागर, रांगेय राघव,चतुरसेन,प्रेमचंद, अज्ञेय,नरेंद्र कोहली,विमल मित्र,आशापूर्णा देवी, सत्यजित राॅय, रवींद्र नाथ ,मंटो से लेकर टॉलस्टॉय,गोर्की, मार्क ट्वेन, डिकन्स ( और भी न जाने कितने साहित्यकार,) तक सब पूरी तरह पढ़ डाला। घंटों उन पुस्तकों के चरित्रों और घटनाओं पर बातें करना, हमें बहुत अच्छा लगता था। श्रीमती आदेश (राजनीति) और श्रीमती शकुंतला अग्रवाल (गणित) भी हमारी तरह पुस्तक प्रेमी थीं।
मेरे लिए विद्यालय का सबसे बडा़ आकर्षण -बिंदु यहाँ का पुस्तकालय ही था। विद्यालय की प्रधानाचार्या श्रीमती रत्नम ने इसे संस्कृत,हिंदी,उर्दू और अंग्रेजी साहित्य की श्रेष्ठ रचनाओं से समृद्ध किया था। इसमें विदेशी साहित्य की उत्कृष्ट रचनाओं के अनुवाद भी पर्याप्त थे। मेरे लिए यह पुस्तकालय किसी कुबेर के कोष से कम नहीं था। र्मैं उन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय से शोध कार्य कर रही थी। अपने सारे खाली पीरियड इसी पुस्तकालय में बिताती। यहीं मेरा परिचय नंदिनी से हुआ। नंदिनी एकदम खिलंदडे स्वभाव वाली ,बिंदास ,अल्हड़ (अब एकदम गंभीर) ,लेकिन अपने कार्य में पूर्णतः कुशल किशोरी थी। पुस्तकालय अधीक्षिका होने के साथ-साथ ,वह छात्राओं को योग भी सिखाती थी।वह टेबल टेनिस भी खूब बढ़िया खेलती थी। मेरी और उसकी बहुत अच्छी दोस्ती हो गई ,जो आज तक कायम है।
हमारी प्रधानाचार्या श्रीमती कमला रत्नम् परम विदुषी,और कई भाषाओं में पारंगत थीं। वे अंग्रेजी,संस्कृत और हिंदी की प्रकांड पंडिता थीं। उनका व्यक्तित्व बहुत प्रभाव शाली था। मैं उनसे बहुत प्रभावित , सच कहूँ तो कुछ- कुछ आतंकित रहती थी। वे खिचडी़ भाषा- प्रयोग पसंद नहीं करतीं थी और मैं दिल्ली यूनी वर्सिटी के लेडी श्रीराम कॉलिज से स्नातकोत्तर करके निकली छात्रा , ऐसी ही भाषा जानती थी,फल स्वरूप अनेक बार उनसे इस विषय में फटकार सुननी पडी़,लेकिन बाद में, मैं उनके ‘वज्रादपि कठोर ,मृदूनि कुसुमाद्ऽपि ‘ स्वभाव से परिचित हो गई। मैंने उनके सानिध्य में बहुत कुछ सीखा। उन्होंने ही मुझे विद्यालय की पत्रिका ‘समाचारिका’ के हिंदी- भाग के संपादन का महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा। उन दिनों यह पत्रिका एक चार पृष्ठों का न्यूज बुलेटिन मात्र थी। पत्रिका- संपादन का यह कार्य ,जहाँ तक मुझे स्मरण है,मैंने तैंतीस- चौंतीस वर्ष तक पूरी निष्ठाऔर रूचि से किया। इससे मेरी लेखन शैली में परिष्कार और निखार आया।
तब स्कूल हायर सैकेंडरी हुआ करते थे। हमारा स्कूल पहले कन्या -विद्यालय था। हर कक्षा वर्ग में अट्ठाईस या अधिकतम बत्तीस विद्यार्थी होते थे।स्कूल की पढ़ाई और अनुशासन उच्च स्तर का था। तब स्कूल में केवल विज्ञान और कला विषय ही पढ़ाए जाते थे। कॉमर्स ( वाणिज्य) विषय बाद में आया। सन् चौहत्तर में स्कूल ने विज्ञान और कला विषयों में टॉप स्थान प्राप्त किया।यह हम सबके लिए बहुत गौरव और हर्ष का विषय था।
विद्यालय की प्रातःकालीन सभा तो अविस्मणीय होती थी। सभी छात्र पद्मासन मुद्रा में बैठते थे। प्रार्थना के बाद मिसेज रत्नम
ज्ञान-विज्ञान,देश- विदेश और संस्कृति के विषय में बताती थीं। मेरा मन तो नोट्स लेने को ललचाता था। पर लोग क्या कहेंगे के चक्कर में ,मैं ऐसा नहीं कर पाई।
एक बार श्रीमती रत्नम ने यह नियम बनाया था कि अध्यापिकाओं को भी प्रातः कालीन असेम्बली को संबोधित करना होगा। यह बात मेरे लिए घबराहट का कारण थी। मेरे संकोची और मितभाषी स्वभाव के कारण मेरी कई कैजुएल लीव इसकी भेंट चढ़ गईं।लेकिन बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी, कहावत तो चरितार्थ होनी ही थी। मुझे भी बलि की बकरी बनना पड़ा। काँपते पैर और धड़कता दिल लेकर, मैंने बार- बार बोलने वाले विषय का अभ्यास किया, और सभा को संबोधन किया। मैंने भारतीय संस्कृति विषय पर अपने विचार प्रकट किए। मुझे सबसे ज्यादा डर मिसेज रत्नम से ही लग रहा था। वह इस विषय में पारंगत थीं।मैंने जैसे- तैसे तीन चार मिनट बोला और अपनी जान की खैर मनाई। गायत्री मंत्र और शांति पाठ के बाद असेम्बली समाप्त हो गई। अभी स्टाफ रूम में पहुँची ही थी कि लालसिंह (विद्यालय के चपरासी महोदय) मेरे पास आया और मुझे बताया कि मैडम ने मुझे बुलाया है। मैं बहुत नर्वस थी। मैडम के पास गई। उन्होंने मुझे परख भरी दृष्टि से देखा और फिर बोलीं ,”वीणा, तुम्हारा संबोधन उत्तम था। मेरे विचार से तुम्हें प्रति सप्ताह प्रातः कालीन सभा को संबोधित करना चाहिए।” उनकी प्रशंसा से मिलने वाली मेरी खुशी, इतनी जल्दी गम में बदल जाएगी, मैंने यह सोचा भी नहीं था। हाँ, यह दूसरी बात है कि पता नहीं किस कारण वश मुझे यह सौभाग्य (??) दुबारा प्राप्त नहीं हुआ। शायद यह भगवान से की गई मेरी प्रार्थनाओं का सुफल था।
असेम्बली में कई बार विशिष्ट अतिथियों को आमंत्रित किया जाता। एक बार राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर जी को आमंत्रित किया गया। उन्हीं दिनों उन्हें अपने काव्य ‘ उर्वशी’ पर ज्ञान पीठ पुरस्कार मिला था। वैसे भी आधुनिक लेखकों में मैं दिनकर जी से बहुत प्रभावित थी। मेरे शोध- प्रबंध का विषय भी दिनकर जी के साहित्य पर ही था। उन जैसे महान साहित्यकार के दर्शन पाना, उनसे काव्य -पाठ सुनना, उनसे वार्तालाप करना ,मेरे लिए परम सौभाग्य की बात थी।
पंद्रह अगस्त और वार्षिक उत्सव स्कूल के प्रमुख कार्यक्रम होते थे। पंद्रह अगस्त के लिए फीचर- लेखन और वार्षिक उत्सव के लिए नृत्य -नाटिका और गीत लिखना मेरा काम था। जिसे लगभग बीस पच्चीस वर्ष तक, (दो तीन बार मेरी अनुपस्थिति में यह कार्य श्रीमती पुष्पलता ने किया) मैंने पूरी निष्ठा और उत्साह पूर्वक किया।
इन नृत्य नाटिकाओं का निर्देशन हमारी संगीत अध्यापिका श्रीमती शिखा बक्शी बहुत कुशलता से करती थीं। वे इसमें भाग लेने वाले बच्चों को अभिनय के साथ साथ, नृत्य और गीत भी सिखाती थीं। हमारी चित्रकला अध्यापिका श्रीमती सरोज सैनी भी इसमें हमारी पूरे मनोयोग से सहायता करतीं। नाटिका में अभिनय करने वाले छात्रों की वेषभूषा, रंगमंच सज्जा ,प्रॉप्स संबंधी कार्य उनकी कुशल देख-रेख में ही होते। उत्सव के सफल आयोजन पर हम बेहद प्रसन्न होते। बाद में यह कार्य बाहर की नाटक मंडलियों को दे दिया गया।
रामजस- संस्थान द्वारा वसंतपंचमी और संस्थापक दिवस का आयोजन भी संस्थान द्वारा भव्य स्तर पर किया जाता था ,जो बाद में कम होते-होते समाप्त सा ही हो गया। अब क्या स्थिति है, मुझे नहीं पता। बाद में अन्तर -विद्यालय वाद-विवाद प्रतियोगिता का प्रारंभ हुआ,जो बहुत उत्तम आयोजन था।
हमारा विभाग इसे भी पूरी लगन से करता।दिल्ली और आस पास के लगभग चालीस- पैंतालीस विद्यालय इसमें भाग लेते।इस वाद- विवाद में हमारा पूरा हिंदी विभाग गीता की अमूल्य सीख
“कर्मण्येवाऽधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्”
को पूरी तरह भुलाकर ,केवल फल -प्राप्ति की भावना से काम करता था। इसका फल अधिकतर मीठा रहता। हमें हर बार प्रथम पुरस्कार मिल ही जाता।
हाँ ,एक दो बार हम हारे भी ,ऐसी स्थिति में हम गीता की ओरिजनल सीख को याद कर मन को तसल्ली देते। विद्यालय में प्रतिवर्ष होने वाला अन्तर्रामजस कवि सम्मेलन मेरा पसंदीदा कार्यक्रम था। इसमें बाल कवि स्वरचित रचनाएं (अब ये कितनी स्वरचित होती थीं, यह अलग बात है ) सुनाते। इस प्रतियोगिता ने मुझे कविता लेखन के क्षेत्र में बहुत प्रोत्साहित किया। छात्रों की दो पंक्तियों को कैसे पच्चीस पंक्तियों में बदला जाता है, यह मैंने यहीं पर सीखा।स्कूल पिकनिक,प्रदर्शनी
आदि आयोजन भी मुझे बहुत आनंदप्रद लगते थे।
इन सब सुनहरी यादों के साथ,स्कूल की एक अन्य स्मृति भी मन में उभरती है।यह स्मृति हाऊस -मीटिंग वाले पीरियड़ से जुड़ी है । हर शुक्रवार को अंतिम दो कालांश में हाऊस- मीटिंग होती थी। इसका उद्देश्य पढा़ई से अलग ,अन्य क्षेत्रों में (सांस्कृतिक ) छात्रों की छिपी प्रतिभा को ढूंँढकर उन्हें प्रेरित करना और मंच प्रदान करना था। उद्देश्य नेक था,लेकिन इसमें हम कभी पाँच- दस- प्रतिशत से ज्यादा सफल नहीं हो पाए। कारण ,इसमें किसी अध्यापक और छात्र की लेश मात्र भी रूचि नहीं होती थी। वैसे भी सबकी सभी प्रतिभाएं , इसके बिना भी खूब उजागर थीं। इस पीरियड में चालीस की कैपीसिटी वाले कक्ष में बासठ चौंसठ छात्र भर जाते। कक्ष मछली -बाजा़र में बदल जाता।
कुछ धाकड़ किस्म के छात्र और अध्यापक इसमें भाग नहीं लेते थे। ये छात्र इस दौरान स्कूल का सूक्ष्म इंस्पेक्शन करते और छोटी बडी़ शैतानियों को कुशलता से अंजाम देते। हाऊस -मीटिंग चरम बोरियत भरा अनुभव थी। पंद्रह बीस-मिनट हाउस अटैडेंस रजिस्टर को ढूँढने और फिर हाजि़री लेने में जान बूझ कर बिताए जाते । उसके बाद सब एक दूसरे का मुँह देखते।
टाईम पास के लिए कुछ बच्चे ‘ चींटी और हाथी ‘वाले टाईप के चुटकुले सुनाते। कुछ फिल्मी गाने सुनाते । कुछ छात्र एकाभिनय करके दिखाते। एक ही बच्चा सारे किरदार निभाता। इसका विषय प्रायः कुछ इस प्रकार रहता–
बालक–( दरवाजा बजाता है ) खट -खट।
बालक—- (मालिक की भूमिका) रामू! देखो कौन है।
बालक–(रामू की भूमिका) -जी ,बाबूजी,देखता हूँ।
बालक— मुँह से चर्र की आवाज करते हुए दरवाज़ा खोलने का अभिनय करता।
सभी एकाभिनय इसी प्रकार के होते। सब बार -बार घडी़ देखते। एक बजकर चालीस मिनट पर बजने वाली स्कूल की छुट्टी की घंटी ,इस दिन अक्सर एक बीस,पच्चीस पर बज जाती।
इस नेक कार्य का श्रेय उन्हीं धाकड़ टाइप के छात्रों,कभी- कभी अध्यापिकाओं ( कड़वा सच) को भी जाता। जो अपने पकड़े जाने के डर से ,चपरासी को कहकर घंटी जल्दी बजवा देतीं।(यह पुण्य का कार्य करने का श्रेय कुछ एक बार मुझे भी प्राप्त हुआ।) अगले दिन इस दुर्घटना की तहकीकात होती और ये परोपकारी बालक, प्रिंसिपल रूम के सामने,चेहरे पर मसीही शहादत का भाव लेकर खडे़ नज़र आते। लेकिन मुझे इस बोरियत भरे काम से जल्दी ही छुटकारा मिल गया। मुझे एक्टिविटी इंजार्ज बना दिया गया। श्रीमती रेनु गुप्ता अधिकारी (इतिहास)भी एक्टिविटी इंचार्ज थीं। वे भी बहु प्रतिभा की धनी थीं।हमने इस कार्य को मन लगाकर किया। विद्यालय में कई नवीन सांस्कृतिक क्रिया कलाप करवाए, जिससे हाऊस मीटिंग्स की बोरियत काफी़ कुछ कम हुई।लेकिन अध्यापिकाओं का कार्य(प्रतियोगिता कार्यक्रमों की तैयारी करवाना)बढ़ गया। सबको प्रसन्न रखना असंभव होता है,इस बात का पूरा अनुभव हमें यहाँ प्राप्त हुआ। अवकाश प्राप्ति तक मैंने इस यह काम किया।लेकिन इस कार्य के भी बहुत से खट्टे -मीठे अनुभव थे।
एक सुखद अनुभव सांझा करने से अपने को नहीं रोक पाउँगी । दसवीं और बारहवीं कक्षाओं के बोर्ड एक्जाम होते थे।उन्हें मिड जनवरी या उसके आस पास परीक्षा की तैयारी के लिए छुट्टियाँ दे दी जाती थीं। तब उन कक्षाओं के कक्ष खाली हो जाते। तब हमारा स्टाफ रूम उन कक्षों में शिफ्ट हो जाता। हमारे स्टाफ रूम में धूप नहीं आती थी और वहाँ बहुत सर्दी हो जाती थी। हम अपने टेम्परेरी शीतकालीन स्टाफ रुम में , काम करते हुए गुनगुनी धूप का आनंद लेते । दसवीं और बारहवीं कक्षा का कार्य न रहने के कारण हमें फ्री पीरियड भी मिल जाते। वैसै इन दिनों हमें अनुपस्थिति कालांश भी रोज मिल जाता था, जो हमारे इस छोटे से आनंद में बड़ा व्यवधान उपस्थित करता। हमने कई वर्षों तक धूप का यह आनंद उठाया पर बाद पता नहीं किसकी (या खुद की ही) नज़र लग गई कि इन खाली कक्षों को लॉक कर दिया जाने लगा। पर फिर भी यह बहुत सुहावनी याद है।
‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन’
विद्यालय में कुछ ऐसे अनुभव भी हुए जिनका उल्लेख मैं अवश्य करना चाहूंँगी। मेरी सेवानिवृत्ति (वर्ष 2010) से एक या दो वर्ष पूर्व हमारे विद्यालय में ( बाद में पता चला कि दिल्ली के सभी विद्यालयों में ) यह नियम बनाया गया कि सभी शिक्षक विद्यालय की छुट्टी होने के बाद,सप्ताह में दो दिन स्कूल में एक घंटा और रुकेंगे और पढ़ाई में कमजोर छात्रों की पढ़ाई की ओर अतिरिक्त ध्यान देकर ,उनका स्तर सुधारने का प्रयास करेंगे। इसका उद्देश्य नेक था, लेकिन व्यावहारिक धरातल पर यह प्रयोग पूर्णतः असफल रहा। कारण, कोई भी छात्र स्कूल के बाद रुककर पढ़ना नहीं चाहता था। ऐसा करने से उनकी स्कूल बस छूट जाती थी। बहुत से छात्र ट्यूशन पढ़ते थे, जो वे मिस नहीं करना चाहते थे। दिन भर पढ़ने के बाद उन्हें आराम की आवश्यकता थी। परिणाम स्वरूप यह कार्य सफल नहीं हो पाया लेकिन शिक्षकों का रुकना जरुरी था। शिक्षकों की दृष्टि से भी यह नियम सही नहीं था। सुबह आठ बजे से पौने दो बजे तक अध्यापन और जाँच कार्यों में लगे रहने वाले , मानसिक और शारीरिक रूप से थके अध्यापकों से, छुट्टी के बाद भी स्कूल में रुककर कार्य करने की अपेक्षा करना अनुचित या यों कहूँ कि अमानवीय था। ऐसा होने से शिक्षकों की स्कूल बस की सुविधा भी छूट जाती थी और उन्हें बाद में भीड़ भरे सार्वजनिक परिवहन में घर जाना पड़ता ।यह एक प्रकार से समय का सामूहिक अपव्यय करना था। पर हमारी शिक्षा व्यवस्था के इस दिखावे में कोई बदलाव नहीं आया और कालातंर में हर रोज रुकने का नियम बना दिया गया। अध्यापकों का यह कीमती समय ,व्यर्थ की स्कूली राजनीति, निंदा पुराण पारायण और चाय -पार्टी की भेंट चढ़ जाता,जो सचमुच दुखद था। यह नियम आज भी चल रहा है या नहीं, मुझे नहीं पता।
ऐसा ही एक और अन्य अनुभव भी है। प्रतिवर्ष आठ सितम्बर को हमारे विद्यालय में साक्षरता- दिवस का आयोजन किया जाता था। इसका लक्ष्य भी बहुत सुंदर था। पूरे एक वर्ष तक
ग्यारहवीं कक्षा के विद्यार्थियों को, एक निरक्षर को साक्षर करने का कार्य करना होता था। विद्यालय की ओर से ( या शिक्षा विभाग की ओर से) नव साक्षर होने वालों के लिए हिंदी और गणित विषयों की प्रारंभिक स्तर की पुस्तकें,और कॉपियांँ, पैंसिल आदि सामग्री फ्री दी जाती। लेकिन विद्यार्थियों की भरसक चेष्टा के बावजूद बड़ी मुश्किल से पढ़ने को इच्छुक निरक्षर लोग मिल पाते। कई विद्यार्थी तो अपना काम पूरा करने के लिए, पढ़ने वाले निरक्षरों को प्रोत्साहित या लालायित करने हेतु अपने पास से दो -तीन हजार रूपए भी दे देते। इतना होने पर भी लोग पढ़ने को तैयार नहीं होते। केवल अपना नाम, पता और फोटो दे देते थे।
साल भर बाद आठ सितम्बर
को इन नव साक्षरों की परीक्षा होती। इस परीक्षा में अधिकतर छात्र अपने दोस्तों,छोटे भाई बहनों
,पडो़सियों आदि को ले आते। लगभग नब्बे पिचानवे प्रतिशत छात्र ऐसे ही फ़र्जी होते थे। । यह जानते हुए भी कि परीक्षा देने के आए लोग नवसाक्षर नहीं है ,वरन पूर्ण साक्षर हैं, यह परीक्षा होती और इतने लोगों को साक्षर करने का आंकड़ा कागजों में पूरा कर दिया जाता। सभी बच्चों को पुरस्कार, प्रमाण पत्र और मिठाई देकर सम्मानित किया जाता। यह सब एक व्यंग्य और सरकारी पैसे का सही दुरुपयोग ही था।
और भी ऐसे कई छोटे मोटे अनुभव शिक्षण काल में हुए। लेकिन यह सब आटे में नमक के बराबर ही थे।
वस्तुतः विद्यालय की स्मृतियाँ तो ‘ हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की भाँति हैं,जो स्मृति -पुस्तक खोलते ही पन्नों में रखीं सुवासित पंखुरियों सी झरने लगती हैं। एक जो अनोखी बात है इनमें,वह यह कि ये आज भी अपने में वही ताज़गी और सौंदर्य समेटे हुए हैं,जो विद्यालय में काम करते समय था।
कुल मिलाकर मेरा शिक्षण काल एक सुनहरा समय था जिसे मैं कभी भूल नहीं पाऊंँगी। आज अपने द्वारा पढ़ाए गए छात्रों को विविध क्षेत्रों में ऊँचाइयाँ छूते देख मन असीम आनंद और गर्व से भर जाता है। सरस्वती के आँगन ,मेरे विद्यालय की ज्ञान -आभा ,सदा सब दिशाओं में छिटकती रहे,यही मेरी शुभ कामना है। छात्रों का सर्वागीण विकास कर ,राष्ट्र और युग के निर्माण में अपूर्व योग देने वाले शिक्षकों को मेरा सर्वदा शत शत नमन।
वीणा गुप्त
नई दिल्ली



