(1)
बचपन खुशियों में डूबा था, हर पल जैसे त्योहार था,
मिट्टी, कंचे, खिलौनों में मेरा जीवन कितना सरल था।
यह मानव जीवन प्रभु कृपा से, मैंने यह जन्म पाया,
पर बड़े होते-होते जग में, प्रभु सुमिरण मैं भूल गया।
(2)
स्कूल की घंटी बजती और ज्ञान की राह शुरू हुई,
पढ़ना-लिखना सीखा हमने, दुनिया की समझ बढ़ी।
पर आत्मा की भाषा धीरे-धीरे मन से ओझल हो गई,
और प्रभु का मधुर नाम स्मृति से कहीं दूर चला गई।
(3)
जवानी आई सपनों संग, हमने उड़ानें ऊँची लीं,
लक्ष्य, पहचान और महत्वाकांक्षा ने सोच बड़ी कर दी।
नाम तो मिलता रहा पर दिल का आँगन खाली रहा,
क्योंकि प्रभु स्मरण जीवन में कहीं शामिल ही न रहा।
(4)
नौकरी और जिम्मेदारी का बोझ बढ़ता ही गया,
घड़ी की टिक-टिक में जीवन जैसे कैद होता गया।
सुबह से शाम तक सिर्फ काम, पर मन ध्यान न लगा,
शब्दों में शोर बहुत था, पर प्रभु का स्वर नहीं उठा।
(5)
पैसा कमाया, घर बना, जीवन सुंदर सा बन गया,
पर रिश्तों की ऊष्मा का दीप धीरे-धीरे मंद हुआ।
बच्चों का भविष्य सँवारा, सफलता के सपनों में खो गए,
पर भीतर के शिशु को प्रभुस्मृति से जोड़ना हम भूल गए।
(6)
अब माँ की लोरी याद आती, जिसमें स्नेह समाया था,
पिता की डाँट में भी अनुशासन ने ही मार्ग दिखाया था।
ईश्वर थे मानव-घट भीतर, पर हम पहचान न पाए,
भागदौड़ की चकाचौंध में सत्य को सुन न ही पाए।
(7)
आईने में अब उम्र की रेखाएँ जब साफ़ दिखती हैं,
दिल पूछता — क्या यही जीवन का अंतिम उत्तर है?
आत्मा धीरे से कहती है — अब भीतर लौट आओ,
बाहरी दौड़ से थककर अब स्वयं को पहचान जाओ।
(8)
देह क्षणभंगुर है, पर आत्मा अमर ज्योति की श्वास है,
जो जन्मों-जन्मों तक प्रभु प्रेम की धड़कन रखती है।
अब समय है रुकने का, भीतर की ज्योति जगाने का,
और नाम सुमिरण में जीवन की सच्ची राह पाने का।
(9)
बाल दिवस यही याद दिलाता, मन को फिर सरल होने दो,
निस्पृहता, सहजता, करुणा से हृदय को फिर खिलने दो।
क्योंकि वही अवस्था ईश्वर के हमें सबसे निकट ले जाती,
यही अवसर मानव को भीतर के सत्य से परिचित करवाती।
(10)
पवित्रता, विनम्रता और सादगी को फिर से जीवन में लाओ,
हर धड़कन में प्रभु नाम का मधुर, पावन गीत सजाओ।
बाल दिवस यही याद दिलाता — फिर बालक बन जाओ,
नित प्रभु सुमिरण कर इस मानव जीवन को सफल बनाओ।
✍️ योगेश गहतोड़ी “यश”



