भारतीय सनातन दर्शन केवल किसी धार्मिक आदेश या विश्वास प्रणाली का नाम नहीं, बल्कि अस्तित्व के सत्य, चेतना के स्वरूप और आत्मा की अनंत संभावनाओं के वैज्ञानिक और आध्यात्मिक अध्ययन का विराट दार्शनिक ढांचा है। यह दर्शन उस युग में उत्पन्न हुआ जिसे मानव सभ्यता के प्रारंभिक निर्माण से भी पूर्व माना जाता है, इसीलिए इसे सनातन कहा गया,अर्थात वह जो न कभी उत्पन्न हुआ और न कभी नष्ट होगा। वेदों और उपनिषदों पर आधारित यह ज्ञान-परंपरा मानती है कि सत्य वह नहीं जो परिवर्तनशील है, बल्कि वह जो नित्य, अपरिवर्तनीय और साक्षीस्वरूप है। यही सत्य उपनिषदों में ब्रह्म के रूप में वर्णित हुआ जो अस्तित्व है, चेतना है और आनंदस्वरूप है। इस ज्ञान के आधार पर भारतीय संस्कृति ने जीवन को चार पुरुषार्थों — *धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष* में विभाजित किया, जिनमें मोक्ष को अंतिम लक्ष्य माना गया, क्योंकि वही मानव चेतना को अद्वैत अनुभव की ओर ले जाता है। इस प्रकार भारतीय दर्शन केवल चिंतन या तर्क नहीं, बल्कि साधना, अनुभव और आत्मबोध की जीवन-यात्रा है।
भारतीय दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें विविधता है, परंतु दिशा एक मात्र *”सत्य की खोज”* है। यहाँ विचारों को प्रतिद्वंद्विता के रूप में नहीं, बल्कि आत्मविकास और गहन अनुभूति के साधन के रूप में देखा गया। इसी कारण भारतीय दर्शन मुख्यतः दो वर्गों में विभाजित है — *आस्तिक और नास्तिक*। आस्तिक दर्शन वेदों को प्रमाण मानता है और इसमें सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्वमीमांसा और वेदांत सम्मिलित हैं, जबकि नास्तिक दर्शन में बौद्ध, जैन और चार्वाक आते हैं, जो वेदों की अनिवार्यता नहीं मानते, परंतु आत्मा, मोक्ष, कर्म और जीवन की गहनता को अपनी दृष्टि से समझते हैं। उपनिषदों, पुराणों, श्रुति-स्मृतियों और मुनियों की संवाद-परंपरा ने इन सब विचारों को विकसित किया और अंततः सत्य को अद्वैत के रूप में स्थापित किया। इसीलिए भारतीय दर्शन में मतभेद संघर्ष नहीं, बल्कि विचार-यात्रा के पड़ाव हैं।
उपनिषदों में अद्वैत दर्शन का बीज अत्यंत स्पष्ट रूप में मिलता है। वहाँ आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता को अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार किया गया। उपनिषदों के महावाक्य जैसे *“अहं ब्रह्मास्मि”, “तत्त्वमसि”, “प्रज्ञानम् ब्रह्म” और “अयम् आत्मा ब्रह्म”* यह बताते हैं कि आत्मा और ब्रह्म भिन्न नहीं, बल्कि एक ही सत्ता के दो प्रतीत रूप हैं। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे स्थित तुरीय अवस्था इस अद्वैत का प्रत्यक्ष अनुभव है। विशेषकर माण्डूक्य उपनिषद और गौड़पादाचार्य की माण्डूक्य कारिका ने अद्वैत को केवल अनुभूति नहीं रहने दिया, बल्कि उसे तर्कसंगत और विश्लेषणात्मक दर्शन का स्वरूप दिया। इस प्रकार अद्वैत केवल आध्यात्मिक अनुभव नहीं, बल्कि एक सुव्यवस्थित बौद्धिक दर्शन बना।
आदि शंकराचार्य इस परंपरा के महान पुनरुत्थानकर्ता माने जाते हैं। उन्होंने मात्र 32 वर्ष की अल्प आयु में अद्वैत वेदांत को फिर से जीवंत किया और उसे भारत की आत्मा में स्थापित किया। उन्होंने गीता, वेदांत, उपनिषद और ब्रह्मसूत्रों पर भाष्य लिखकर अद्वैत को तर्क, श्रुति और अनुभव तीनों स्तरों पर सिद्ध किया। उनका सिद्धांत — *“ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः”* यह केवल वाक्य नहीं, बल्कि अस्तित्व की संरचना का विशुद्ध वर्णन है। मिथ्या का अर्थ असत्य नहीं, बल्कि वह सत्य जो व्यवहार में अनुभव तो होता है परंतु अंतिम सत्य नहीं है। शंकराचार्य की परंपरा के कारण गुरु-शिष्य पद्धति, ध्यान, मनन, निर्लेपता और आत्मानुशीलन की परंपरा आज भी जीवित है।
अद्वैत के मूल सिद्धांतों में ब्रह्म को निर्विकार, निराकार, निर्विशेष और अनंत सत्ता माना गया है। आत्मा उसी ब्रह्म का प्रतिबिंब है और जीव-भाव केवल अज्ञान की देन है। संसार और अनेकता का अनुभव माया के कारण होता है, जो न वास्तविक है न अवास्तविक बल्कि अनुभूति के स्तर पर अनिर्वचनीय है। इस दर्शन के अनुसार सत्य दो रूपों में समझा जाता है, एक व्यवहारिक सत्य और दूसरा पारमार्थिक सत्य। व्यवहार में संसार सत्य प्रतीत होता है, किंतु पारमार्थिक दृष्टि से केवल ब्रह्म ही सत्य है। जब अज्ञान नष्ट होता है तब आत्मा को ज्ञात होता है कि वह कभी बंधी हुई नहीं थी, केवल बंधन का भ्रम था और यही अनुभूति मोक्ष कहलाती है।
अद्वैत दर्शन साधना का मार्ग भी प्रदान करता है। इसमें ज्ञानयोग के साथ-साथ भक्ति, कर्म और राजयोग को महत्व दिया गया है। श्रवण, मनन और निदिध्यासन इस साधना की तीन अवस्थाएँ हैं। श्रवण- सत्य को सुनना है, मनन- उसका तर्कपूर्ण चिंतन और निदिध्यासन- उसकी अनुभूति करना। आत्मज्ञान केवल अध्ययन से नहीं मिलता, बल्कि निरंतर आत्मस्मृति और ध्यान से प्राप्त होता है। इसलिए अद्वैत कहता है कि अफ्ड्स *“तुम वही हो जिसे तुम बाहर खोज रहे हो।”* साधक जब चित्त को शांत, अहं को विलीन और इच्छा को संयत करता है, तब सत्य स्वयं प्रकट होता है।
अन्य भारतीय दर्शनों की तुलना में अद्वैत की विशिष्टता यह है कि वह भेद का नहीं, अभेद का दर्शन है। जहाँ विशिष्टाद्वैत जीव और ब्रह्म को एक होते हुए भी विशिष्ट मानता है, वहीं द्वैत दोनों में शाश्वत अंतर स्वीकार करता है। शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत और अचिन्त्यभेदाभेद सभी ईश्वर और जीव के संबंध को अलग-अलग स्तर पर प्रकट करते हैं। बौद्ध विज्ञानवाद मन को अंतिम सत्य मानता है और शून्यवाद कहता है कि चेतना सहित सब कुछ शून्य है। किंतु इन सभी विचारों में भी अद्वैत की छाया स्पष्ट दिखाई देती है, क्योंकि लक्ष्य अंततः मुक्ति, आत्मबोध और अंतिम सत्य का साक्षात्कार है।
आधुनिक युग में अद्वैत दर्शन का प्रभाव केवल भारत में नहीं, बल्कि पूरे विश्व में तेजी से फैल रहा है। स्वामी विवेकानंद ने इसे विज्ञान, तर्क और अनुप्रयोग के साथ विश्व के सामने प्रस्तुत किया। आधुनिक मनोविज्ञान, ब्रेन-साइंस और क्वांटम भौतिकी के शोध अब यह स्वीकार करने लगे हैं कि चेतना मूल है और जगत चेतना का विस्तार है जो अद्वैत का आधारभूत सिद्धांत है। रमण महर्षि, निसर्गदत्त महाराज, अरविंद और अनेक आधुनिक विचारकों ने अद्वैत को ध्यान, मौन और आत्मसाक्षात्कार की पद्धति के रूप में जीवंत रखा है।
धर्म, अर्थ और काम मानव जीवन के आवश्यक अंग हैं। धर्म मनुष्य को कर्तव्य, मर्यादा और नैतिक संतुलन सिखाता है। अर्थ मनुष्य को साधन उपलब्ध कराता है, ताकि वह जीवन की आवश्यकताओं को पूर्ण कर सके। काम सौंदर्य, प्रेम, अनुभूति और भावनात्मक परिपक्वता का आधार है। अद्वैत इन तीनों को अस्वीकार नहीं करता, बल्कि कहता है कि इन्हें साधन बनाओ, लक्ष्य नहीं। जब ये साधन संतुलित और जागरूकता में उपयोग किए जाते हैं, तब जीवन मोक्ष की ओर स्वतः अग्रसर होता है।
मोक्ष अद्वैत में किसी स्वर्ग या स्थल की प्राप्ति नहीं, बल्कि आत्मस्मरण की अवस्था है, जहाँ मनुष्य जान लेता है कि वह अपनी सीमाओं, अनुभवों और शरीर से परे एक अनंत चेतना स्वरूप है। यह अवस्था भय, दु:ख, मृत्यु, आकर्षण, द्वेष और अहंकार से परे स्थित है। यह वह क्षण है जहाँ साधक कहता है — *“मैं वही हूँ जो युगों से हूँ जो अपरिवर्तनीय, स्वतंत्र और पूर्ण है।”*
अंततः भारतीय अद्वैत दर्शन केवल सिद्धांत नहीं, बल्कि आत्म-परिवर्तन की दिशा है। यह मनुष्य को बाहरी भटकाव से हटाकर भीतर की अनंत उपस्थिति से जोड़ता है। आज मानव ज्ञान, तकनीक और भौतिक उपलब्धियों में आगे बढ़ गया है, परंतु भीतर वह अब भी शांति, अर्थ और पहचान की तलाश में है। अद्वैत आज विश्व के लिए एक आध्यात्मिक औषधि है, जो यह सिखाता है कि हम अलग नहीं, एक हैं; सीमित नहीं, असीम हैं; खोजने वाले नहीं, स्वयं सत्य हैं। भविष्य का मानव जैसे-जैसे चेतना में विकसित होगा, अद्वैत दर्शन केवल दर्शन नहीं, बल्कि जीवन का प्राकृतिक स्वरूप बन जाएगा, क्योंकि अंत में वही सत्य बचेगा जो सनातन है।
भारतीय सनातन और अद्वैत दर्शन मानव अस्तित्व की उस अनंत यात्रा का प्रतिनिधित्व करता है जहाँ सत्य को बाह्य जगत में नहीं, बल्कि आत्मा की गहराई में खोजा जाता है। यह दर्शन सिखाता है कि ब्रह्म ही एकमात्र अपरिवर्तनीय, नित्य और चेतन सत्य है तथा आत्मा उसी का प्रतिबिंब या स्वरूप है। जीवन को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे चार पुरुषार्थों में विभाजित कर यह बताता है कि संसार में रहकर भी मनुष्य आत्मबोध की ओर अग्रसर हो सकता है। अद्वैत कहता है कि ज्ञानी के लिए जीव और ब्रह्म में कोई भेद नहीं, और अज्ञान का अंत ही मोक्ष है, जो कोई स्थान नहीं, बल्कि पहचान का प्रकाश है। उपनिषदों से लेकर शंकराचार्य और आधुनिक विज्ञान तक, यह दर्शन तर्क, अनुभव और साधना के माध्यम से आत्मा की अनंतता सिद्ध करता है। आधुनिक विश्व में जहाँ मानव बाहरी उपलब्धियों के बावजूद आंतरिक शून्यता महसूस करता है, अद्वैत यह स्मरण कराता है कि हम सीमित शरीर या मन नहीं, बल्कि असीम चेतना हैं और सत्य की यह अनुभूति ही वास्तविक स्वतंत्रता है।
🙏 योगेश गहतोड़ी “यश”




